है जीने की अभिलाषा- अफ़शां क़ुरैशी

इसे खोखलेपन की पराकाष्ठा कहूँ,
दिखावे में रिश्तों की निष्ठा कहूँ
उच्छृंखल भावों की उत्कंठा कहूँ,
डर की संघर्ष से निर्भयता या
भाग्य से ज़िन्दगी की वाचालता कहूँ,
सरलता से सभ्यता का सामना कहूँ,
निराशा की भी हताशा या
हृदय पे बोझ की अतिशयता

कि

लिखना चाहो
किताब बन जाओ,
बोलना चाहो
वक्ता बन जाओ,
हँसना चाहो
दोस्त बन जाओ,
रोना चाहो
बच्चा बन जाओ,
सुकून चाहो
श्रोता बन जाओ,,
सुना था मैने अभी तक

लेकिन ये यथार्थ से है दूरी
क्यूँ कि जब जब मैंने ऐसा किया,
इक आवरण मैनर्स का चढ़ाया गया,
मौलिकता ने सामाजिकता का रूप धरा,
वास्तविकता ने अवसाद का श्रृंगार भरा,
चकाचौंध ने निराशा को जन्म दिया
कायरता ने मौत को जिया

यही वजह है

आभासी सामाजिक मंचों पर
उत्साह से लबरेज़ आकर्षक व्यक्तित्व
बुद्धि और श्रम का सामंजस्य
जीने की कला का कलाकार
आज ख़ुद ज़िन्दगी से हार
सहानुभूतिपूर्ण दे गया सबक़

तरक़्क़ी, धन और पद
जो तय किए हैं हमनें
सफ़लता के मापदंड और शब्द
हैं ये जटिलता से भरपूर पथ
और मासूमियत के लिए बहकावे का रथ

लेकिन
घुटन रोग है,
कुण्ठा लक्षण है,
पर साँसों का ख़ात्मा, इलाज तो नहीं,
गर है पत्थर और पानी का संगम ज़िन्दगी

क्यूँकि

नहीं है रूपहले ख़वाबों की जिजीविषा
ज़िन्दगी है जीने की अभिलाषा
डूबती, उभरती नैया पार लगाने की आकांक्षा

-अफ़शां क़ुरैशी
क़स्बा मवाना, ज़िला मेरठ,
उत्तर प्रदेश