न जाने कितनी बेटियां: निधि शर्मा

खेलकूद की उम्र थी उसकी
अभी तो चलना सीखा था
अभी तो उसने ठीक से
पढ़ना भी न सीखा था

क्या दिखता है उस मासूम में जो
हवस दरिंदो की जग जाती है
उस बच्ची को देख ना जाने
उनमें कौन सी आग फिर लग जाती है

खिलखिलाते बचपन की वो चीख सुनाई देती है
वो माँ-बाबा की लाड़ली एक बार फिर
कुछ कहते-कहते रह जाती है
इस सत्ता बचाने के खेल में,
ना जाने कितनी बेटियाँ मौत के मुँह में बह जाती है

वो दर्द अपना बार-बार सुनाती है
और उसके दर्द की गाथा लम्बी होती चली जाती है
आज एक बार फिर इंसानियत मर जाती है
निर्भया के साथ-साथ न जाने
कितनी बेटियाँ हर रोज जुड़ जाती है

निधि शर्मा