निःस्वार्थ इश्क़: त्रिवेणी कुशवाहा

बचपन का वह प्रेमपत्र
निःस्वार्थ इश्क़,
बहुत याद आता है

कागज़ की वो नाव
बारिश में पेड़ों की ओट में छिपना,
पगडंडी की जलभरी गढ़ईयों में
पांव का पटकना
बहुत याद आता है

तुतुर-मुतुर का मुअड़ा
आईस-पाईस का खेल,
भूत बनकर तुम्हें डराना
माफ़ी मांग कर मेल
बहुत याद आता है

तेरे कटे हुए जख्मों पर
मिट्टी का मरहम लगाना,
हंस-हंस के बातें करना
नयनों का मटकाना
बहुत याद आता है

बचपन का वह निःस्वार्थ इश्क़
जीवन का अब आनंद कहाँ,
कामवासना भरी नज़रों में
तुम कहाँ और हम कहाँ

पलक झपकते जब कभी
तेरी बचपन की तस्वीर उभर जाता है,
आनंद की अनुभूति के रंग में रंग
हृदय प्रफुल्लित हो जाता है
बहुत याद आता है

बचपन का वह प्रेमपत्र
निःस्वार्थ इश्क़,
बहुत याद आता है
बहुत याद आता है

त्रिवेणी कुशवाहा ‘त्रिवेणी’