प्रकृति- रूपा रानी

प्रकृति की हरियाली देख मेरा मन हर्षाया
याद आई बचपन के पीपल की शीतल छाया
निकट जा स्पर्श करने को मेरा दिल हो आया
अरे! ये क्या? यह थी वृक्ष की कृत्रिम काया

है ये गंगा यूपी की , गोदावरी आंध्र और कावेरी कर्नाटक
रोका, टोका, काटा, बाँटा, बहुत हुआ यह नाटक
विराम दो इन झगड़ों को, आखिर चलें कहाँ तक
इन जंजाटो को देख-देख प्रकृति भी गयी अब थक

आधुनिकता की चपेट आ प्रकृति है रोती
मनुष्य के संकल्प, वादे लगने लगी अब थोथी
अस्तित्व ही क्या हमारा यदि यह ही न होती
जंगल, नदी, झील, झरने दुखद गाथा है गाती

पर मैं जानूं मानव ने यदि प्रतिज्ञा ठानी
न करने दे वह किसी को प्रकृति साथ मनमानी
कर रक्षा प्रकृति की रचो नई कहानी
हूँ मनुष्य तो बस मनुष्य की क्षमता थी बतानी

-एच के रूपा रानी