झांसी दुर्ग भ्रमण: प्रार्थना राय

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नमन करूं उस माटी को जहां वीरांगना के पाँव पडे़
हैं धन्य पिता मोरोपंत, जिनके घर दुर्गा रूप मनु का अवतार हुआ

झांसी के बारे में क्या कहूं जहां पाँव पड़ते ही कल्पनाओं के भँवर में गोते लगाने लगी। प्रथम द्वार से प्रवेश करते ही मैं स्वयं में नहीं रही और मेरी आँखे ढूंढने लगी, वो स्थल जहाँ से महारानी ने 4-5 अप्रैल 1858 में अपने दत्तक पुत्र दामोदर को पीठ पर बांध घोड़े पे सवार होकर छलांग लगायी थीं। मैं स्वयं की व्यग्रता रोक न पायी शिलापट पर बने तीर के माध्यम से पदचापों की गति बढ़ाते हुए कुदान स्थल पहुँची। सच में मैं बता नहीं सकती, वो क्षण मेरे लिए कैसा था। कल्पना के अतंस में उतर गयी, मौन खड़ी उस शिलापट को देखती रही, जिस पर लिखा कुदान स्थल मानों मेरे सामने वही समय धारा वापस बह रही हो और स्पर्श करने लगी दुर्ग के प्राचीर को।

रानी की छवि मेरे नेत्रों को स्पर्श कर रही हो। कुदान स्थल को देख कर मेरा मन नहीं भरा। कभी उस प्राकृतिक ढ़लान को देखती, जहां महारानी अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए किले से बाहर निकलने में सफल हुई, वहां से काल्पी गयीं और ग्वालियर में उन्हें वीरगति प्राप्त हुई। कहते हुए खेद प्रकट कर रही हूँ, महारानी की पराजय हो ही नहीं सकती ग्वालियर में फिरंगियों से नहीं हारी, अपनों से परास्त हुई इतिहास से वह पन्ना हटाया नही जा सकता। रानी अपनों से धोखा खायी, सुनों जयचन्दों जब तक सूरज चांद रहेगा, तुम्हारी काली करतूतों को पढ़ा जायेगा और महारानी का नाम सदैव गर्व से लिया जायेगा।आज भी जीता जागता उदाहरण मौजूद है ‘बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’।

मेरी आँखें भर आयी सोच कर कि मात्र तेईस वर्ष की अवस्था में धैर्य का परित्याग न करते हुए रानी के द्वारा उत्साहपूर्वक प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद किया गया। महारानी की वीरता की गाथा झाँसी के कण कण में व्याप्त है।

हो ना हो वो अवतारी रणचण्डी काली थी 
महारुद्र, रुद्राणी थी कितने नाम धरुं मैं तेरा
महिषासुर मर्दिनी, चामुंडा, मां अन्नपूर्णा
सत्य स्वरूपा, अष्टभुजी महारानी थी
दुर्गा तेरे कितने रुप का बखान करूं

कुदान स्थल को नमन करते हुए मैं वहाँ गयी जहां रानी प्रतिदिन भोलेनाथ का दर्शन करने जातीं थीं और साथ में गणेश मंदिर का दर्शन किया, जो मराठा शैली की अद्भुत कलाकृति है। बारादरी सन 1838-53 में राजा गंगाधर राव अपने भाई के लिए बनवाये थे, जिनकी संगीतादि में गहन रुचि थी। बारादरी में सुन्दर फव्वारे का निर्माण किया गया एवं ज्यामितीय अलंकारो से सुसज्जित किया हुआ था। 15 एकड़ फैले इस किले के दो तरफ़ से खाई और 22 बुर्ज मौजूद हैं। 10 दरवाजे साथ में 6 मंदिर स्थित है, हालांकि समूचे किले का वर्णन करना मेरे लिए संभव नहीं, दुर्ग का फैलाव जो स्वयं में इतिहास पटल पर अद्भुत है। 

मेरे केन्द्र में कुदान स्थल, कड़क बिजली तोप और तीन मकबरे हैं, तोपची गौस खान, मोती बाई और खुदाबक्श, जो फिरंगी सेना से लोहा लेते हुए 4 जून 1858 में वीरगति को प्राप्त हुए। निःसंदेह किले का जर्रा-जर्रा गवाही दे रही वीर गाथा के किस्से, तोपची गौस खान के मकबरे को शीश नवा कर आगे बढ़ी। किले में बहुत से गुप्त स्थल मौजूद हैं, अपने आप में अनेक रहस्य छिपाये हुए है। कई स्थानों पर प्रवेश निषेध है, मन नीरस तब हुआ जीर्ण-क्षीर्ण होते कई स्थान दिखे और पर्यटकों द्वारा फैलाई हुई गंदगी जो किले में अनेक स्थान पर बिखरी हुई थी, साथ में लापरवाही भी दिखी, दुर्ग के रखरखाव के लिए कोई खास प्रबंध नहीं हैं, जिससे बहुत से हिस्से क्षतिग्रस्त हो रहे हैं।

पंच महल राजा वीर सिंह के द्वारा बनवाया गया। जिसके ऊपरी तल का निर्माण फिरंगियों ने कराया था, पंच महल को देखकर मुख्य द्वार के मुहाने पर स्थित कड़क बीजली तोप के पास जा पहुँची। गंगाधर राव के काल की इस तोप की मुखाकृति सिंह समान है, चौड़ी भौंए और नेत्र जो माँ काली के विकराल नेत्र के जैसी कलाकृति का अद्भुत नमूना दिखी। कड़क बिजली तोप जैसा नाम वैसा ही काम। तोप की आवाज बिजली जैसे थी इसलिए कड़क बिजली तोप नाम दिया गया तोप के मध्य भाग  तीन पट्टीयों में बटी हुई है, जिस के बीचो-बीच फूल पत्तियों की कलाकृति से शुशोभित है। तोप की कुल लंबाई 5.50मी×180मी तथा 0.60मी है, तोपची गौस खान द्वारा संचालित कड़क बिजली तोप जिससे दुश्मनों की रूह तक कांप जाती थी, भवानी शंकर तोप जो अपने आप में अद्भुत दिखी।

और हां दुर्ग में प्रवेश करते ही संगमरमर पट पर सुभाद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित ‘खूब लगी मर्दानी’ काव्य पाठ लिपि रूप में स्थापित है, जिसे खड़े-खड़े पाँच बार पढ़ी, मानों वीर रस में ओतप्रोत हो गयी। परन्तु मनमसोस के रह गयी, संगमरमर पट से लिखावट देखरेख के अभाव में धूमिल हो रही है। कहीं ना कहीं दुर्ग की ओर सरकारी ध्यान नहीं है, अन्तोगत्वा दुर्ग के द्वार को माथा टेक, मिट्टी को शीश पर लगाकर नतमस्तक हुई और बार-बार झांसी आने की अभिलाषा लिए  वहां से रवाना हुई।

प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश

Jhansi fort