परसाई के शीर्षक, हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं: विवेक रंजन श्रीवास्तव

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए 233, ओल्ड मिनाल, भोपाल- 462023

व्यंग्य लेखों में शीर्षक का महत्व सर्वविदित है। शीर्षक वह दरवाजा होता है जिससे पाठक व्यंग्य में प्रवेश करता है। शीर्षक पाठकों को रचनाओ तक सहजता से खींचता है। शीर्षक सरल, संक्षिप्त और जिज्ञासावर्धक होना चाहिये। वस्तुतः जिस प्रकार जब हम किसी से मिलते हैं तो उसका चेहरा या शीर्ष देखकर उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के विषय में अनुमान लगा लिया जाता है, ठीक उसी प्रकार शीर्षक को पढ़कर व्यंग्य के अंतर्निहित मूल भाव के विषय में शीर्षक से अनुमान लगाया जा सकता है।

केवल सनसनीखेज शीर्षक हो पर व्यंग्य में पाठक को विषयवस्तु न मिले तो जल्दी ही व्यंग्यकार पाठकों का विश्वास खो देता है। शीर्षक-लेखन अपने आप में एक कला है। शीर्षक में शब्दों के स्थान का निर्धारण भी एक महत्वपूर्ण तत्व होता है। परसाई जी के लेख पढ़ना तो वैचारिक विमर्श होता ही है, उनके लेखों के शीर्षक भी स्वयं में विचार मंथन का अवसर देते हैं। परसाई के अनेक लेखों के शीर्षक शाश्वत बोध देते हैं। उनके शीर्षको पर फिर फिर नये नये लेख लिखे जा सकते हैं। परसाई रचनावली के छै खण्ड हैं। उनके लगभग हजार से ज्यादा लेख इस समग्र रचनावली में समाहित हैं।
इन समाहित लेखों में परसाई के अनेक शीर्षक कौतुहल पैदा करते हैं, उनमें प्रश्नवाचक चिन्ह तथा मार्क आफ एक्सक्लेमेशन भी मिलता है। आखिर एकता क्यों हो? बोल जमुरे इस्तीफा देगा?, भेड़ें और भेड़िए!, बाबा की गौमाता! आदि ऐसे ही शीर्षक हैं।

परसाई न्यूनतम शब्दों में ही बड़ी बात कहने की क्षमता रखते हैं। आत्मसम्मान की शैलियां, बारात की वापसी, आरोप ही आरोप, भगत की गत जैसे शीर्षकों में वे शब्द चातुर्य करते हैं। परसाई के लंबे शीर्षकों में भी प्रायः एक वाक्य या वाक्यांश हैं। लंबे शीर्षको में वाक्य विन्यास में कर्ता और क्रिया के अनुक्रम में परिवर्तन मिलता है। भारत-पाक युद्ध और मेरी तलवार, आचार्य जी एक्सटेंशन और बगीचा, अब युद्ध जहर भी नहीं, भगवान का रिटायर होना, रिटायर्ड भगवान की आत्मकथा, भूत पिशाच का हनुमान चालीसा, आवारा युवकों के जरिए आवारा क्रांति, वादे पूरे करो मत करो, आदम की पार्टी का घोषणा पत्र आदि उनके व्यंग्य लेखों के ऐसे ही शीर्षक हैं।

सामान्यतः सिद्धांत है कि शीर्षक छोटा होना चाहिए लेकिन लेख की समग्र अर्थाभिव्यक्ति की दृष्टि से अधूरा नहीं होना चाहिए. परसाई के कुछ एक या दो शब्दों के लघु शीर्षक देखिये आमरण अनशन, अकाल उत्सव, अफसर कवि, बेमिसाल, अनुशासन, अमरता, अभिनंदन, असहमत, आदमी की कीमत, बदचलन, भोलाराम का जीव आदि जब हम इन लेखों को पढ़ते हैं तब शीर्षक अपनी संपूर्णता में अभिव्यक्त होता जाता है तथा लेख का कंटेंट शीर्ष से बाद में भी स्मरण रहता है।

अनेक लेखों में वे दो तीन शब्दों के शीर्षक से भी एक उत्सुकता तथा चमत्कार पैदा करने में पारंगत थे। मसलन उनके लेखों के शीर्षक हैं- अपना पराया, अमरत्व अभियान, असिस्टेंट लोकनायक, अश्लील पुस्तकें, असुविधा भोगी, अभाव की दाद, एयरकंडीशंड आत्मा, अमेरिकी छत्ता, अरस्तु की चिट्ठी, आत्मज्ञान क्लब, वैष्णव की फिसलन, विधायकों की महंगी गरीबी, अपने लाल की चिट्टी, वधिर मुख्यमंत्री, मूक मुख्यमंत्री, बंधुआ मुख्यमंत्री, आंदोलन दबाने वालों का आंदोलन, अखिल भारतीय मंत्री संघ का पत्र, अपनी कब्र खोदने का अधिकार इस तरह के समसामयिक लेखों के उनके शीर्षक प्रासंगिक रूप से आकर्षक होते थे।

कहा जाता है कि शीर्षक जिज्ञासापरक होना चाहिये, परंतु उसे जानबूझकर सनसनीखेज नहीं बनाना चाहिए। द्वि-अर्थी, पक्षपातपूर्ण, अभद्र व अश्लील शीर्षक नहीं होना चाहिए। परसाई जी इस मापदण्ड पर शत प्रतिशत खरे उतरते हैं। भारत सेवक की सेवा, आना और ना आना राम कुमार का, अपने अपने इष्ट देव, अपनी-अपनी बीमारी, आफ्टर ऑल आदमी, असफल कवि सम्मेलनों का अध्यक्ष, अब और लोकतंत्र नहीं, बेचारा कॉमन मैन, भगवान को घूस, बेचारा भला आदमी, अपनी अपनी हैसियत जैसे शीर्षको से उनके लेख उस समय तो पठनीय थे ही आज भी रुचिकर हैं। सामान्यतः कहा जाता है कि समसामयिक व्यंग्य साहित्य की उम्र ज्यादा नहीं होती, वह अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर छपता जरूर है किन्तु अखबार के साथ ही रद्दी में बदल जाता है किन्तु परसाई रचनावली पढ़ने से समझ आता है कि क्यों वे इतने सशक्त व्यंग्य हस्ताक्षर के रूप में पहचाने जाते हैं। आज के व्यंग्य लेखक परसाई के पठन से, उन की शैली व चिंतन को समझ कर बहुत कुछ सीख सकते हैं।

मुहावरों , लोकोक्तियों लोकप्रिय फिल्मी गीतों या शेरो शायरी के मुखड़ो को भी शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस तरह के प्रयोग से परसाई ने भी अनेक लेखों के शीर्षकों को आकर्षक बनाया है। उदाहरण के लिये अभी दिल्ली दूर है, सब सो मिलिए धाय, अहले वतन में इतनी शराफत कहां है जोश, सुजलाम् सुफलाम्, वैष्णव जन और चौधरी की पीर, सबको सन्मति दे भगवान, आई बरखा बहार, अपने-अपने भगीरथ, बलिहारी गुरु आपकी आदि।

भ्रष्टाचार वितरण कार्यक्रम, भावना का भोजन, सरकार चिंतित है, बिना माइंड के लाइक माइंडेड, सदाचार का ताबीज, सड़े आलू का विद्रोह, साहब का सम्मान, सज्जन दुर्जन और कांग्रेस जन, सर्वोदय दर्शन, वर्कआउट स्लिप आउट ईट आउट, भारत को चाहिए जादूगर और साधु जैसे शीर्षको के उनके व्यंग्य लेख समर्थ साहित्य हैं, और अब गीता आंदोलन, अकाली आंदोलन फासिस्टी और देश, बांझ लोक सभा को तलाक, भूत के पांव पीछे, भारतीय राजनीति का बुलडोजर, भारतीय भाषाओं का रेडियो कवि सम्मेलन, भजन लाल का भजन, यज्ञदत्त का यज्ञ भंग, बिना जवाब की आवाजें, स्वर्ग में नर्क जैसे शीर्षकों में परसाई शब्दों से खेलते मिलते हैं।

साहित्य शोध प्रक्रिया, सम्मान की भूमिका, साहित्य और नंबर दो का कारोबार, बेपढ़ी समीक्षा जैसे लेखो में वे साहित्य जगत पर कटाक्ष करते हैं तो, ये विनम्र सेवक, बेचारे संसद सदस्य, जैसे लेखों मे राजनीतिज्ञो को अपनी कलम के निशाने पर लेते हैं। बकरी पौधा चर गई में परसाई वृक्षारोपण में होते भ्रष्टाचार पर प्रहार करते हैं। यशोदा मैया का माखन में उनका इशारा माखन चट करते भ्रष्ट अफसरो और मंत्रियो के काकस की ओर है। ये सारे विषय दशकों के बाद आज भी उतने ही ज्वलंत हैं जितने परसाई के समय में थे। उन्हें धर्म नहीं आंदोलन चाहिए ऐसे शीर्षक हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है जैसे परसाई आज के प्रसंगो पर लिख रहे हों। यदि हम परसाई के समय में स्वयं को वैचारिक रूप उतारकर पूरा लेख पढ़ें तो परसाई के लेखों के शीर्षक हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं।

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