एक अंधा और उसका अंधेरा- कुमारी अर्चना

गाड़ी में बड़ी भीड़ थी
आदमी ऊपर था या नीचे
इतना पता करने का
किसी के पास फुर्सत ना थी
बस की सीट चाहिए थी
विक्लांग की सीट खाली थी
क्या उनका हक़ मारना न होगा
समझ ना आया क्या करूँ
महिला सीट फुल थी
बैठे आखिर किसके ऊपर!

उसने बगल वाली सीट पर
बैठने का इशारा किया
मारे खुशी के कुछ ना सूझा
फिर बातों के सिलसिले बने
वो एक पढ़ा लिखा
सांवला सा नौजवान था
स्टिक को ऐसे पकड़े हुए था
जैसे जीवन का सहारा हो
अंधेरे और उजाले दोनों में
सब बराबर जो है उसके!

मेरा उससे बातें करना
उसका मेरी बातों को सुनना
उसके दर्द मुझसे बाँटना
मेरे मन का हलका होना
उसके आँखो का चमकना
मेरे होंठों का मुस्काना
उसे बहुत अच्छा लगा
मुझे भी वो भला लगा
उसका बाय बाय मुझे
हाथों से कहना आँखो में
फिर मिलेंगे का आशा भरना
बातों के लिए शुक्रिया कहना
मेरी आँखों में आँसू का ठहरना!
दिल ने कहा ऐसे का हाथ
जिंदगी का साथ चाहिए था
फिर ना वो कभी मिला
जब भी किसी अंधे को
देखती हूँ तो अंधेरे के साथ
उसकी याद आती है!
उजाला अंधेरे के साथ चले तो
अंधेरा धरा से मिट जाएगा
दिलों से भी दूरी घट जाएगी!

-कुमारी अर्चना ‘बिट्टू’