यशोधरा- अंकिता कुलश्रेष्ठ

आपके संग हर कदम
चलती रही अनुगामिनी सी
क्यों भला फिर मैं अकेली
रह गई अपराधिनी सी

आपके अधरों से निकले
शब्द मैंने वेद जाने
वेदनाएं आपकी सारी सहीं
बिन भेद जाने
राह कंटक बीन मैंने
पुष्प-आंचल मग सजाया
आपका जीवन सुगम हो
इसलिए हर व्रत निभाया

नेह वंचित ही रही
अभिशप्त मैं संत्रांसिनी सी
क्यों भला फिर मैं अकेली
रह गई अपराधिनी सी

अग्नि सम्मुख ले वचन
था कर दिया सर्वस्व अर्पित
आप ईश्वर मैं पुजारन लीन
तन-मन से समर्पित
नीर दृग का पीर उर की
आपको जो रोक पाती
बुझ रही प्राणों की बाती
प्रीति- घृत से झिलमिलाती

देह-पिंजरे में बिलखती
आत्मा ज्यों बंदिनी सी
क्यों भला फिर मैं अकेली
रह गई अपराधिनी सी

आपका क्या दोष मानूँ
भाग्य मेरा ही निबल था
प्रेम में कुछ खोट था
या पूर्व कर्मों का कुफल था
पुष्प बन खिलने से पहले
ये कली मुरझा रही है
अश्रु-सरि की बूंद अविरल
रूप-तरु कुम्हला रही है

बाट फिर भी जोहती हूँ
मैं विकल अनुरागिनी सी
क्यों भला फिर मैं अकेली
रह गई अपराधिनी सी

-अंकिता कुलश्रेष्ठ