एक सफ़र तेरे साथ, बिन ठिकाने का करना है
हाँ मोहब्बत की थी और हमें अकेले ही मरना है
तुमने तो कहा था, कि तुम हवा हो बह जाओगी,
मैं मुसाफिर हूँ और मुझे अकेले ही चलना है,
मंज़िलें तो हर बार मिलती रही हैं सफ़र में,
इस बार के सफ़र मुझे, भटकने का करना है
न जाने किस आस में, जिए जा रहा हूँ अब तक?
शायद मुझे तेरे ही आगोश में आकर मरना है
भले ही ये ज़माना, लाख बंदिशें लगाये मुझ पर,
हमें तो मरते दम तक, इश्क़ तुमसे ही करना है
हर इश्क़ मुकम्मल हो, ये ज़रूरी तो नहीं ‘खुरपाल’
तुम्हें साथ भी नहीं रखना और खुद से दूर भी नहीं करना है
-निशांत खुरपाल ‘काबिल’
अध्यापक,
कैंब्रिज इंटरनेशनल स्कूल, पठानकोट