क्यों देखूं उस आइने को
जो हर रोज मुझे चिढ़ाती है
चेहरे पर पड़ रही झुर्रियों को
बालों पर छा रही सफेदी को
नहीं देखना मुझे
मुझे तो बस आगे बढ़ना है
अपनी मंजिल की ओर
क्योंकि अभी भी
मुझमें आस बाकी है
लड़ने की बीमारियों से
दम अभी भी बाकी है
अरे अभी भी मैं जी सकती हूं
क्योंकि वह श्वास बाकी है
दुनियां क्या कहती है
फ़िक्र नहीं मुझको
मेरे अपने क्या कहेंगे
मेरे पराये क्या कहेंगे
फ़िक्र नहीं मुझको
कर लूंगी फतह मैं
जीत लूंगी जिंदगी की जंग
अरे अभी भी मुझमें
वह विश्वास बाकी है
कहने को तो हो गई हूं
चालीस की पर
मेरे कमसीन दोस्तों
मुझमें अभी भी
वह सोलह के एहसास बाकी है
(जिनकी उम्र चालीस के पार हो गई है, उन्हें समर्पित)
-अन्नपूर्णा जवाहर देवांगन
महासमुंद, छत्तीसगढ़