प्रेम अनुभूति गर, उर में उतरती,
तो सौम्य अमृत छलकाती
सुंदर स्वर्ग धरा हो जाती
प्रेमी हृदय दर्पण बस जाती
फिर पल-पल, उठ मचल जाते हैं,
दीप-दीप पर वे परवाने
फूल-फल के मधु रस लोभी,
भौरें बनकर वे दीवाने
प्रेम अनुभूति वही है,
जो ज्वाला जैसी जलती है
मानव के उर में पोषित,
त्याग, तप से पलती है
प्रेम उपासना बन जाती है,
वासना गरल पी जाती है
निकृष्ट भांग से, तुलसी दल,
बनकर पूजी जाती है
प्रेम प्राणों का बंधन,अविचल है,
प्रेम सत्यम, शिवम, सुंदरतम है
प्रेम अनुभूति, इसकी सुंदरता
भरती नित्य-नवीन, विविधता
प्रेम-अमृत पीकर प्राणी की,
परोपकार भावना एकाकार होती
सबका मंगल, सबका हित,
सकल विश्व कुटुंब समझती
-अंशु प्रिया अग्रवाल
मस्कट, ओमान