रोज के रोज दंगे होते जा रहे हैं,
सभ्यता के नाम पर हम नंगे होते जा रहे है
कल नहीं था उसका रोना रो रहे थे,
आज होने पर भी भिखमंगे होते जा रहे है
कर्ज लेकर घी पीने की आदत बढ़ रही है,
नशे में धुत होकर जवानी लड़खड़ा रही है
उम्मीद थी जिनसे कुछ बदलेगा
बेचारे वे ही नंगे होते जा रहे है
चोला है कुछ और चरित्र कुछ और है
क्या करें सियार भी अब
बाघ की शक्ल में रंगे नजर आ रहे है
अपनों से प्यार नहीं, बड़ो का लिहाज नहीं
लोग इतने क्यों बेढंगे होते जा रहे है
कल तक अमन था, शांति थी
अब तो हर एक सहर हर खबर
खून से रंगे नजर आ रहे हैं
खतरा गैरों से नहीं अपनों से है,
भय जानवरों से नही इंसानों से है
क्या यही है विकास का वास्तविकता कि
एक भूखा है नंगा है और दूसरे
तो मानो पतंगे होते जा रहे है
-अरुण कुमार नोनहर
बिक्रमगंज, रोहतास
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