अनन्त चतुर्दशी: व्रत और महात्म्य

ज्योतिषाचार्य ऋचा श्रीवास्तव

हमारे देश में विशेष तौर पे उत्तर भारत में अनन्त चतुर्दशी का त्यौहार पूरी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। यह त्यौहार मूलतः भगवान विष्णु को समर्पित है।

इस दिन लोग सुख, सौभाग्य और स्वास्थ्य की रक्षा और जीवन में शान्ति के लिए व्रत और पूजन करते हैं। इस दिन प्रातःकाल में व्रत का संकल्प लिया जाता है। फिर भगवान विष्णु की पंचोपचार पूजन करके, उनके समक्ष 14 ग्रंथि युक्त अनन्त सूत्र जो कि बाजार में पीले धागे या चांदी के रूप में मिलता है, रखते हुए भगवान से सुख, समृद्धि और शान्ति की कामना की जाती है। लोग पूजन के बाद कथा का श्रवण करते हैं और अनन्त सूत्र को बाँह में बांधते हैं। फिर ब्राह्मण को दान-दक्षिणा देकर स्वयं बिना नमक भोजन करते हैं।

प्रत्येक वर्ष भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को अनन्त चतुर्दशी कहा जाता है। अग्नि पुराण में अनन्त चतुर्दशी व्रत के महत्व का वर्णन किया गया है। लोग प्रातःकाल मे व्रत का संकल्प लेकर दोपहर में भगवान विष्णु की पूजा करते है तथा 14 गांठे लगे हुए पीले रक्षा सूत्र को बाजू पर बांधते हैं।

रक्षा सूत्र बांधते समय इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए-

“अनन्त संसार महासमुद्रे मग्रं समभ्युद्धर वासुदेव।
अनन्तरूपे विनियोजयस्व ह्रानन्त सूत्राय नमो नमोस्तुते।।”

मुहूर्त

इस वर्ष अनन्त चतुर्दशी गुरुवार 28 सितम्बर 2023 को है तथा पूजन मुहूर्त प्रातः 6 बजकर 12 मिनट से लेकर सायं 6 बजकर 52 मिनट तक है।

अनन्त चतुर्दशी के दिन गणेश विसर्जन भी किया जाता है, इसलिए इस पर्व का महत्व और भी बढ़ जाता है। भारत के कई राज्यो में यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। इस दैरान कई जगहों पे झांकियां भी निकाली जाती हैं।

सनातन मान्यताओं के अनुसार महाभारत काल से अनन्त चतुर्दशी व्रत की शुरुआत हुई। यह भगवान विष्णु का जन्मदिन माना जाता है। अनन्त भगवान ने सृष्टि के आरंभ में चौदह लोकों तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल, भू, भुवः, स्व, जन, तप, सत्य, और मह की रचना की थी। इन लोकों का पालन करने हेतु वे स्वयं चौदह रूपों में प्रकट हुए थे। जिससे वे अनन्त प्रतीत होने लगे। इसलिए ये पर्व भगवान विष्णु को प्रसन्न करने और अनन्त फल देने वाला माना गया है। इस दिन व्रत रखकर श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से अनन्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।                                     
व्रत कथा

प्राचीन काल में सुमन्तु नामक ऋषि हुए। जिनकी अत्यंत गुणवती पुत्री शीला थी जो परम् विष्णु भक्त थी। उसका विवाह भी विष्णु भक्त कौण्डिन्य मुनि से हुआ। शीला सदैव भाद्र पद की चतुर्दशी को भगवान अनन्त नारायण का पूजन कर उनके 14 रूपों के प्रतीक के रूप में पीले रंग के धागे में 14 गांठें लगा कर हाँथ में पहन लेती थी। इससे उसके घर में सुख सौभाग्य की वृद्धि होने लगी और उनका जीवन सुखमय हो गया। एक बार क्रोध वश ऋषि कौण्डिन्य नें शीला के हाँथ का मंगल सूत्र तोड़ के फेंक दिया। उस दिन के बाद से उनके घर में दुःख और दुर्भाग्य नें डेरा डाल लिया। एक बार अत्यंत दुःख और विपन्नावस्था में ऋषि कौण्डिन्य वन में गए और भगवन् विष्णु की तपस्या करने लगे। प्रसन्न होकर भगवन् प्रकट हुए और अनन्त चतुर्दशी की व्रत उपासना का महात्म्य समझा के पूजन पुनः शुरू करने का आदेश दिया। घर लौट कर ऋषि ने पत्नी शीला के साथ भली भांति पूजन किया और खोये हुए सुख सौभाग्य की प्राप्ति की।