डॉ. आशा सिंह सिकरवार
अहमदाबाद
बच्चियां अनवरत गायब हो रही हैं
बच्चियां जो खेल रहीं हैं गली में, एकांत में,
गांव में, कस्बों में,
नगरों में, महानगरों में
घात लगाए बैठा है वहीं कोई
इस दफा बहरूपिया बच्ची के हाथ में प्रसाद रखेगा
बच्चियों को तो चॉकलेट का पहाड़ा रटाया गया है
माँ कितनी भोली थी वो खुद भी कहां जान पाई थी
प्रसाद के भिन्न-भिन्न प्रकार
अफ़ीम, गांजा, ड्रग्स
प्रसाद में छिपा है छल
साधु के भेष में रावण आकर बच्चियों को
उठा ले जायेगा
अब साधु कोई नहीं है संसार में
बर्बरता के बाद
इतनी निर्मम हत्याएं हुईं बच्चियों की
एक दिन
बच्चियां बड़ी हो जायेंगी मठों में
नहीं लौट पायेंगी वे संसार में
जिसमें उम्र भर खेलना था छुपन-छुपाई
रखने थे संभालकर बचपन के खिलौने
पढ़ना था, गाने थे मुक्ति के गीत
खुद की सार्थक कहानी लिखनी थी
बच्चियां बन चुकी होंगी किसी मठाधीश की दासियां
या बाजार का हिस्सा