बदनसीब बचपन- त्रिवेणी कुशवाहा

कर्तव्य से विमुख हो
पल्ला झाड़ लिया,
अपनी करनी का ठीकरा
दूसरों पर डाल दिया

मेरे बदनसीब बचपन का
जिम्मेदार कौन है?
कोई तो बोलो
सब क्यों मौन है?

तन सुख की चाहत में
ढ़ेर लगा दिये,
इंसान बनाना था
भेड़ बना दिये

कभी बेटे की चाहत में
दर्जनों बेटियाँ,
कभी बेटी की चाहत में
दर्जनों बेटे

किन्तु जीवन के
कुछ और कर्म होते हैं
कभी न चेते।₹

अपनी करनी ठेल दिया
समाज, सरकार और धर्म के ठेकेदार पर,
वे तो वैसे ही बैठे हैं
पहले से फन मारकर

कब मौका मिलेगा?
स्वार्थ सिद्ध कर पायेंगे,
दरिन्दगी हवस का
भूख-प्यास बुझायेंगे

सरकार, समाज, धर्म के ठेकेदारों का
अपना खेल है,
किसी का वोट तो किसी को
चेलों का रेल है

सब अपनी-अपनी मंजिल
पाने की ताक में हैं,
बदनसीब बचपन का
जिम्मेदार तो माँ-बाप हैं

उसके बाद समाज
सरकार और धर्म के ठेकेदार
बदनसीब बचपन तो वैसे ही है लाचार

जैसा परिवेश मिलता है
वैसा ही ढलते हैं,
बदनसीब बचपन से हैं सदा जलते हैं
बदनसीब बचपन से हैं सदा जलते हैं

-त्रिवेणी कुशवाहा ‘त्रिवेणी’
खड्डा-कुशीनगर