तुम मेरे साथ एक क़िताब बन कर रहना: वंदना मिश्रा

पुस्तक: दो औरतें
कवयित्री: चित्रा पंवार
समीक्षक: डॉ वंदना मिश्रा
प्रोफेसर, जीडी बिनानी पीजी कॉलेज,
मिर्ज़ापुर

“मोहे ना नारी नारी के रूपा” तथा ‘औरत औरत की दुश्मन’ के क्रूर मिथकों को तोड़कर स्त्री एक ऐसे समय में आ गई है जहाँ वह ‘सखी संप्रदाय’ की सदस्य बन गई है, उस सम्प्रदाय की जिसे पुरुष ने नहीं बनाया है।

स्त्रियों ने अपना एक नया समाज बनाया है या बनाने की लगातार कोशिश कर रही हैं ।जो पुरुष हस्तक्षेप से मुक्त है, जिसमें स्त्री अपनी नई पहचान बना रही है। जिसमें वह कथित ईर्ष्या और कुंठा के थोपे गए आडंबर और आवरण से मुक्त है।

यह कैसा समाज है जिसमें स्त्रियां मुक्त कंठ से एक दूसरे की प्रशंसा भी करती हैं और निर्द्वंद होकर आपस में सुख-दुख से बांट लेती हैं। कहना चाहिए कि एक सुंदर सामंजस्य स्थापित हो गया है स्त्रियों के बीच।

चित्रा पंवार के कविता संग्रह ‘दो औरतें ‘देखने के बाद इस धारणा को और बल मिलता है। कविता संग्रह का शीर्षक ही स्त्रियों की आपसी साझेदारी और समझदारी को द्योतित करता है। कहना नहीं होगा शिशु की सबसे पहली पहचान अपनी मां से होती है और उसके प्रति व्यक्त की हुई कृतज्ञता उसके मनुष्य होने की पुष्टि करती है।

चित्रा भी लिखती हैं मां के प्रति ‘नमन ‘शीर्षक से लिखती हैं कि “पशु से मानव तक ले आई/तुम ही उंगली थाम ….मां तुम्हें सलाम!/तुम्हें प्रणाम!/तुम ही मेरा ईश्वर!/तुम ही मेरी दुनिया!।”

चित्रा जी ने ना सिर्फ मां बल्कि मां समान अपनी बहनों को भी यह कविता समर्पित की है, जो उनकी स्त्री के प्रति धारणा को और अच्छे से व्यक्त करती है।

चित्रा जी की कविताएं रोजमर्रा के जीवन की कविताएं हैं। यह किसी रहस्यमयी, तिलस्मी या वायवीय दुनिया की नहीं बल्कि सामान्य जीवन के पल पल पर नजर रखती कविताएं हैं।

स्त्रियां पुरुषों के बनाए ढांचे और प्रतिबंध से बाहर निकल कर , जब एक दूसरे के साथ होती हैं तो उनका एक अलग रूप होता है। अकारण नहीं कि चित्रा जी ने स्त्रियों के संग साथ पर एक साथ 6 कविताएं लिखी है और सुखद यह है कि वे स्त्रियां एक दूसरे के साथ बहुत खुश हैं।

वो लिखती हैं “दो औरतें जब निकलती हैं अकेले/निकाल फेंकती हैं अपने भीतर बसी दुनिया/उछाल देती हैं हवा में उम्र का गुब्बारा/जिम्मेदारियों में दबे कंधे उचकने लगते हैं।” पृष्ठ-11

भाषा की सादगी चित्र जी की विशेषता है उनकी कविताओं में शिल्प न के बराबर है जो उनकी कविताओं को शब्द आडंबर से मुक्त करता है। बिना शिल्प के कथ्य पर अटूट विश्वास है उनका।
आत्मविश्वास भरपूर है और इतनी तेज दृष्टि कि पुरुषवादी मानसिकता को बखूबी पकड़ लेती हैं “ईर्ष्या नहीं करती एक दूसरे से/दो औरतें वह तो बस मोहरे होती हैं बिछाई गई विसात की जिसे बिछाता है खेलने वाला।” पृष्ठ-13

वे जानती हैं कि जहां इस हस्तक्षेप से मुक्त हुई औरतें वे अपने असली रूप में आ जाती हैं और उस समय “बस अपने साथ होती हैं/उस वक्त/दो औरतें।” पृष्ठ-11

स्त्रियों के साथ उनका पूरा परिवार चलता है। एक आदत सी पड़ गई है उनके अपने घर परिवार की बात करने की। खुद को भूल सी जाती हैं इसलिए जब हम किसी पुरुष से मिलते हैं तो सिर्फ़ उससे मिलते हैं और जब कोई महिला हमसे मिलती है तो अनजाने में ही हम उसके पूरे परिवार के विषय में जान जाते हैं। बिना पूछे अपने घर परिवार की तमाम बातें स्त्रियां एक दूसरे से बताती हैं। यह उनका परिवार के प्रति समर्पण भी है और एक तरह से बंधन भी।

चित्रा जी बखूबी लिखती हैं इसे” एक मुलाकात में ही जान जाते हैं वो/एक दूसरे के भीतर बसा/उनका पूरा परिवार/और उसकी पसंद ना पसंद/जुदा होते समय/कितनी एक जैसी होकर लौटती हैं/वो बिना नाम वाली दो औरतें।” पृष्ठ-12

देखने वाली बात यह है कि इस कविता में स्त्रियां अपने परिवार के बारे में तो सब कुछ बताती हैं।
नहीं बताती या आवश्यकता नहीं समझती तो सिर्फ अपने नाम की। जैसे उनका नाम बेमतलब हो और परिवार ही मुख्य हो।

सम्भवतः ऋतुराज की एक कविता है जिसमें स्त्रियां घाट से लौट रही है और उन्हें देखकर समझ नहीं आ रहा है कि इनमें से किस स्त्री ने खोया है अपना पति।
तात्पर्य कि स्त्रियां, भले ही उनके लिए इतना भी ईर्ष्या का ताना-बाना बुना जाए समाज द्वारा,लेकिन सत्य है कि वे एक दूसरे से भीतर तक जुड़ी होती हैं।

चित्रा जी के यहां स्त्रियों के योगदान पर विशेष दृष्टि रखी गई है चाहे वह मां के रूप में हो या पत्नी के इन दो स्त्रियों के बिना पुरुष का अस्तित्व संभव नहीं होता।

तभी लिखती हैं “हे पुरुष! तुम्हारे इन कंगूरों, बेल, बूटों, ऊंची मीनारों शिखर कलश से/सुसज्जित जीवन भवन की शिल्पी हैं ये/दो औरतें।” पृष्ठ-16

जहां पुरुष के दबाव से मुक्त होती हैं स्त्रियां बहुत सहज और बहुत ही सखी भाव से एक दूसरे से जुड़ जाती हैं।

“सब कुछ साझा कर लेती हैं/जब मिल बैठती हैं/दो औरतें।” पृष्ठ-17

चित्रा जी की कविताओं में स्त्री के विविध रूप दिखाई पड़ते हैं। समाज में एक अकेली स्त्री है जो उम्र के ढलते हुए पड़ाव पर है। लोग उसके धन के प्रति आकृष्ट होते हैं पर उसकी सेवा कोई नहीं करता।घरवाले-रिश्तेदार उसे बाहरी लोगों से डराते हैं और खुद उसके पास आते नहीं। लिहाजा वह एकदम अकेली हो जाती है और एक दिन जब उसकी मृत्यु हो जाती है तो रिश्तेदार झूठा नाटक करते हैं कि “हमने बहुत कहा कि हमारे साथ चलो लेकिन इन्हें अकेलापन पसंद था और उसी में से कुछ लोग यह भी कहते हैं कि बहुत ‘नकचढी ‘थी यह बुढ़िया। पृष्ठ-20

मां-बेटी का रिश्ता एक बड़ा कोमल और मजबूत रिश्ता होता है। इसलिए मां अपने अधूरी इच्छाएं अपनी बेटी में पूरा करना चाहती हैं।

चित्रा जी लिखती हैं कि “जो अधूरी इच्छाएं/गांठ बन कर/रह जाती हैं/ कहीं भीतर दबी हुई/वही जन्मती है/ एक दिन मां की कोख से बेटी बनकर।” पृष्ठ-20

चित्रा के यहां घर भी है उसका महत्व भी ‘अछूत’ भी है जिनके शब्दकोश में ‘नहीं’ शब्द नहीं है, जो मालिक के यहां बेबसी में चले आते हैं और गालियां ही खाते हैं।

“चले आते हैं ये अछूत/मालिकों के यहां खाने/चौथाई पेट रोटी/चौथाई पेट गाली/और आधा पेट सब्र।” पृष्ठ-22

ऐसा नहीं कि दुख ही दुख हो उनके संग्रह में। उनकी कविताओं में प्रेम भी है इंतजार भी है। सुखद अनुभूति भी है। वे लिखती हैं “जैसे कई दिनों बाद खिली/घनी धूप के बाद/अचानक होने लगती है तेज बारिश/वैसे ही कभी चले आना तुम/बिना बताए अचानक/दरवाजे पर खड़े होकर मुस्कुराते हुए।” पृष्ठ-23

प्रेम में बिछड़े हुए लोगों को लेकर दुख भी है ट्रेन जाती है कुछ लोगों को मिलाने के लिए और कुछ लोगों को उनके अपनों से दूर करने के लिए। चित्रा देखती हैं एक जोड़ा जिसमें से लड़की ट्रेन में बैठी है और प्लेटफार्म पर उसका प्रेमी खड़ा है ।लिखती हैं -“छूट जाता है जोड़े का एक हंस।” पृष्ठ-25

उनके यहां पर्यावरण पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया है। एक छोटा सा खेल जिसमें पक्षियों को उड़ाया जाता है के माध्यम से उन्होंने एक बहुत बड़ी बात कही है। जिसमें बच्चे खेलते हुए अचानक एक बात पर रूठ जाते हैं कि तुमने मेरे सारे पक्षी उड़ा दिए। कहने को यह बच्चों की एक सामान्य सी बात है, परंतु आज के वातावरण में यह एक गंभीर प्रश्न भी है।

” मगर बीच खेल में ही बच्चे/रूठ कर बैठ गए/जाओ हम नहीं खेलते/बहुत बुरी हो तुम/सारे पक्षी उड़ा दिए/अब वह कभी नहीं आएंगे।” पृष्ठ-26

दुर्घटनाओं में केवल संख्या लिखी जाती है मगर जिनके घरों के लोग जाते हैं, उनके दिल पर क्या बीती है उन्हें कैसा लगता है यह हम समझ नहीं पाते।

चित्रा उन व्यक्तियों पर ध्यान देती हैं “जो आंकड़े होने से पहले व्यक्ति थे।” पृष्ठ-27

स्त्री को अक्सर धैर्य में पृथ्वी के समान बताया गया है और उससे उम्मीद की जाती है कि वह उसी के समान सब कुछ बर्दाश्त करती रहे। स्त्री पुरुषों के बनाए सहनशीलता और धैर्य के प्रतिमान पर खरी उतरने के लिए पूरे जीवन संघर्ष करती रहती है, लेकिन कभी उसे संपूर्ण स्त्री का खिताब नहीं मिलता। क्योंकि संपूर्ण शायद कुछ भी नहीं है लेकिन स्त्री इस मृग मरीचिका के पीछे भागती रहती है। स्त्रियाँ कभी पूरी नींद नहीं सोती। पुरुष अपने नींद पूरी करके चैतन्य होकर ताजगी भरा उठता है, जबकि स्त्री अलार्म की आवाज पर घबराती हुई उठती है।

कहने को यह सामान्य चित्र हैं जिन्हें हम हर घर में देखते हैं परंतु यह बहुत कुछ कहता है। चित्रा कहती हैं कि जैसे कभी पृथ्वी में भी भूकंप आता है वैसे तुम भी कभी अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लिया करो। जब कोई तुम्हारा उपकार ना माने और तुम्हें अधिकार की तरह लेने लगे। “तब हे स्त्री! डोल जाया करो ना/तुम भी अपनी धुरी से/पृथ्वी की तरह।” पृष्ठ-31

लेकिन स्त्री रुकती नहीं है वह निरंतर अपने कर्तव्य पथ पर चलती रहती है “क्योंकि जानती है वो/पृथ्वी के रुक जाने का अर्थ/संपूर्ण सृष्टि का रुक जाना है।” पृष्ठ-33

उनके यहां स्त्री चींटी के समान जिजीविषा और कर्मठता की प्रतीक हैं।

विष्णु नागर की कविता है ‘हँसने की तरह रोना’ जिसमें कवि लिखता है कि लड़की हँस रही थी और सिर्फ़ उसकी माँ को पता था कि वो रो रही है, वो समझाती है कि बेटी ससुराल में ऐसी तरह रोना नहीं तो लोग कहेंगे कि इसे तो हँसना भी नहीं आता।

चित्रा जी के यहाँ एक बेटी अपनी माँ का रोना देखती है।

“पूरा गाँव जानता
फलाने की बहू बड़ी हँसमुख है
मगर माँ रोती भी है
यह कौन जानता था।” पृष्ठ-38

‘महिला दिवस’ मनाने जैसे पाखण्ड पर भी चोट करती हैं वे-

“हर साँस,हर कदम पर पहरा दिया तुमने
फिर यह महिला दिवस का दिखावा क्यों?” पृष्ठ-39

सिमोन ने लिखा था कि “स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है।”

चित्रा लिखती हैं- “डर
औरत लेकर पैदा नहीं होती माँ के पेट से
एक सोचे समझे षडयंत्र के तहत
बैठाया जाता है उसके दिमाग़ में
जीवन मृत्यु से परे चिर स्थायी भाव बनाकर।” पृष्ठ-45

संग्रह में ‘दांडी मार्च’ पर भी एक कविता है दर्शाती है कि कवयित्री की दृष्टि सिर्फ़ स्त्री मुद्दे पर नहीं बल्कि हर संघर्ष पर है। गांधी जी के हत्यारे पर भी कविता है। हम सब उनके हत्या के दोषी है, क्योंकि हम चाह कर भी उनके आदर्शों पर नहीं चल पाते, स्वीकारने का साहस भी है।

उनके यहाँ तानाशाह भी हैं, भारत देश के प्रति प्रेम भी, युद्ध की विभीषिका पर भी नज़र है। ‘थर्ड जेंडर’ पर भी एक कविता है। पर्यावरण की चिंता है। खत्म होते तालाब है, पेड़ों को लगाने का आह्वान है।

उनकी कविता खुद मुख़्तार और खुद्दार स्त्रियों को पसंद करती है। वे चेतावनी देती हैं-“किसी की भीख में दी रोटी/कभी मत स्वीकारना/जानती हो क्या कीमत होती है उसकी/तुम्हारा सम्पूर्ण वजूद कैद हो जाता है/उस एक निवाले में।” पृष्ठ -71

चित्रा स्त्री के लिए फैलाए जाने वाले हर ग़लत भ्रम का विरोध करती हैं। ‘स्त्री के पेट में बात नहीं पचती’ -कहा जाता है। वे लिखती हैं “जानती हैं वो/कौन सी बात/जुबान पर रखनी है/और कौन सी/डाल देनी है/मन के गहरे कूएँ में।” पृष्ठ -102

नरेश सक्सेना की कविता है, पेड़ कटने पर “मेरे आँगन में कट कर/गिरा मेरा नीम/गिरा मेरी सखियों का झूलना/बेटे का पालना गिरा।”

चित्रा लिखती हैं- “एक पेड़/मात्र नहीं होता एक पेड़/उसकी जड़ों के नेह से बंधी रहती है/पूरी धरती।” पृष्ठ-104

खूबसूरत और विचारशील कविताओं से भरा है यह संग्रह। प्रख्यात कवयित्री एवं चित्रकार सोनी पांडेय जी द्वारा बनाया गया ‘कवर पेज’ एवं भूमिका तथा वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव का उनकी कविताओं के विषय में लिखना संग्रह की गुणवत्ता को सिद्ध करता ही है। कविता के साथ कवयित्री के द्वारा बनाए गए चित्र चार चांद लगा देते हैं। ‘आपस पब्लिकेशन’ द्वारा प्रकाशित यह संग्रह आशा है पाठकों को पसंद आएगा।