मन के मंदिर में श्रद्धा से, रघुनन्दन की मूर्ति सजाएँ
रात अमावस तम गहराया, दिव्य दीप-वर्तिका जलाएँ
एक नहीं दस-दस दसकंधर, आज स्वयं के भीतर पलते
मर्यादित हैं नहीं आचरण, शील हरण के फंदे बुनते
अहंकार रूपी चिंतन का, तन-मन से अस्तित्व मिटाएँ
अभी तलक मारीच मनुज में, छद्म रूप जो अनुदिन बदले
मायावी माया से सबको, अपने वशीकरण में कर ले
गिरगिट-सी चालों को भूलें, मन दर्पण-सा विमल बनाएँ
कुटिल मंथरा अब तक जीवित, नेकी को वनवास दिलाती
मोम सरिस अंतर्मन को भी, अति निर्मम पाषाण बनाती
प्रेम दया समता ममता की, अंतर्मन में पौध उगाएँ
भाई-भाई बने विभीषण, बना रहे रिश्तों में खाई
मतभेदों के षड्यंत्रों ने, आँगन में दीवार उठाई
घर का भेदी बनकर जग में, क्यों अपना उपहास कराएँ
स्नेहलता नीर