स्नेहा किरण
प्रगतिशीलता की सोंधी खुश्बू से हम सब हुए सराबोर
पर हमने वास्तव में दलितों, वंचितों, शोषितो और मजदूरों के लिए क्या किया..?
सिवाय हर बार किंकर्तव्यविमूढ़ होने के
यह जानते हुए भी की जीवन में हर चीज की क़ीमत चुकानी पड़ती है
साहित्य में राजनीती कोई समाधान नहीं बल्कि शुरुआत से ही हमारी मूल समस्या है
अपने ही जड़ो को खाने वाली राजनीती से भरी यह साहित्यिक क्रांति बड़ी निर्मम है
आंदोलन हमारे अकेलेपन का ईलाज नहीं है
और न ही जातिगत भेदभाव दूर करने का कोई माध्यम है
प्रगतिशील लेखक मतलब क्या
प्रगतिशील वही जो
सही मायनों में लड़ सके
पर लड़े तो क्या परिणाम मिला,
यही असली सवाल है..
लड़ो -लड़ो और केवल लड़ो
जो लड़ने वाले नहीं
वो लेखक नहीं हो सकते..
और प्रगतिशील भी नहीं हो सकते
अपनी इन्ही अंजुलियों में भर भर कर
न जाने मैंने कितने ही साहित्य सर्जकों को कहा है –
अलविदा दोस्तों
कलम का साथ निभाने के वास्ते
मैं सहता ही रहा हूँ
धर्म और जाति की झूठी बुनियाद पर टिके
हुक्मरानों का उत्पात
और चुपचाप सुनता हूँ
अपने अंतरमन की आवाज़
जो हर पल कहा करती है मुझसे
काजल की कोठरी से
शायद ही कोई बेदाग निकलता है
जानता हूँ कीमत तो देनी ही पड़ेगी जीवन में
झूठे -सच्चे मूल्यों के लिए इस दुनिया के वन में
नीति पथ पर चलूँ तो भी तो
किसी के लिए वह होगी ही अनीति
जानता हूँ कलम की बुनियाद पर यह खरीदी गई सामाजिक शांति
होती है तो बस चंद रोजा
पर उसके लिए चुकाई जाने वाली कीमत
प्रतिपल प्रतिक्षण, दिन -ब -दिन बढ़ती जाती है
बन गया है नाता फिर भी कुछ
इस खरीदी गई शांति से ऐसा
कि दूजा कोई भी मुझे
सुकून न दें पाता है दिल को वैसा
नवाअंकुर कहते रहते है मुझसे
कि मैं हमेशा ही उन्हें दिशाहीन किया करता हूँ
कोई है ऐसा चश्मदीद गवाह
जो साबित कर दें इन आरोपों को
जानता है ये नीलां आसमां
कि कभी भी लेना नहीं
इस जग को देना ही जानता हूँ मैं
अपनी योग्यता का परिचय पाकर
चुपचाप आंसू बहाता हूँ मैं
क्यूंकि
प्रगतिशील लेखक हूँ मैं
हाँ -हाँ
प्रगतिशील लेखक हूँ मैं