तुम क्या जानो- पूनम प्रकाश

तुम क्या जानो कितने आंसू दे आँखों के मोल चुकाए।
आईने को बहुत मनाया, अक़्स हमारे तब मुस्काए।

अपने पांव तले की धरती हमने स्वेद कणों से सींची।
तुमने अपने स्वार्थ बाण से जिसपर लक्ष्मण रेखा खींची।
ख़ाली झोली पर हमको सन्ताप नहीं अनुमन्य हुए पर,
मन गागर की बूँद आख़िरी तक तुमपर ही हाय उलीची।
सबकी ख़ातिर तारा टूटा, अपने फूल तलक़ मुरझाए।

रंग हमारे थे चमकीले, धूल धूसरित आज पड़े हैं।
फूल उगाने की कोशिश में शूल हृदय के पार गड़े हैं।
हाथ बढ़ाते एक बार तो पाना इतना मुश्किल कब था
पर सबके स्वप्नों की ख़ातिर अपने मन से ख़ूब लड़े हैं।
घायल पंखों ने सीने पर व्यंग बाण बादल के खाए।

तुमने दीप जले ही देखे, तुमको तम का भान नहीं है,
जल लाने वालों के चटके होंठों का अनुमान नहीं है।
उससे पूछो जिसने अपनी नौका भँवर हवाले कर दी,
स्वयं स्वयं के चिन्ह मिटाना ऐसा भी आसान नहीं है।
इंद्रधनुष गढ़ने वालों के हिस्से नभ बेरंगे आये।

© पूनम प्रकाश