मन इक जंगल- विभा परमार

मन इक जंगल ही तो है
और उसमें निरंतर विचारों का
आवागमन दलदल ही तो है
विचारों का ये दलदल
धीरे धीरे गहराता जाता है
सर्द रातों के घने कोहरे की तरह
और
इसी दलदल में फंसी रहती है
आजीवन
ये ‘आत्मा’
जो सच-झूठ, सही- गलत के दरमियां
बदलती रहती है करवटें
और इन करवटों की आवाज़ें
चीख तो कभी
सन्नाटों को
जन्म देती है निरंतर!
निरंतर बहने वाली चीखें और सन्नाटों की
उम्रें भी होती है लम्बी
इतनी लंबी
जितना लंबा होता है
वो अंजान रास्ता, जिस पर चलने से
अनेको-अनेक पैदा होती है भ्रांतियाँ
जिसमें मुख्य होता है
डर
जो ना तो खुद आगे बढ़ता है
और ना ही बढ़ने देता है
डगमगाते कदमों को

-विभा परमार