गाँव और शहर: सीमा शर्मा ‘तमन्ना’

हां दोस्तों! आपका और मेरा गाँव ही तो है जहां
भीड़भाड़ से दूर सुकून और आराम मिलता है
यूं तो कहने को शहर में ही घर है मेरा आपका मगर
केवल वह ईंट पत्थरों से बना मकान सा लगता है

गाँवों में मौज मस्ती, हर त्योहार, त्योहार सा लगता है
शहरों में तो‌ जैसे इसका केवल व्यापार सा लगता है
पूरा गाँव तीज त्योहारों जब एक हो जाता है, सच पूछो
हर खुशी अपनी, हर कोई अपना परिवार सा लगता है

बेशक मखमली बिस्तर का आराम शहरों में मिलता है
किन्तु न रात सी रात और न दिन सा दिन‌ लगता है
आगे बढ़ने की होड़ में यहां इन्सान मशीन सा चलता है
अपनेपन की बात न‌ पूछो‌, हर कोई किसी को छलता है

शहरों में न तो ठीक से सुनहरी धूप खिलखिलाती है
न ही फूलों पर यूं रंग बिरंगी तितलियां मंडराती है
गाँव ही है जहां कुदरत अपनी सुन्दरता बिखराती है
आज भी पनिहारिन पनघट पर नीर भरने आती है

पीपल की शीतल ठंडी छांव तो गाँवों में ही मिलती है
शहरों की नकली मशीनें तो‌ केवल ज़िंदगी लीलती हैं
सरसों का साग, मक्के की रोटी जो चूल्हे पर बनती है
सच पूछो तो शहरों में वो कहां खाने को‌ मिलती है।

गाँव की मिट्टी और खुशबू का रंग ही अलग होता है
शहरों में दम घुटता है और प्रदूषण बेहिसाब होता है
इसकी हवाओं में कारख़ानों का जहर घुला होता है
वहीं अपने गाँव की स्वच्छ हवा आसमान खुला होता है

सीमा शर्मा ‘तमन्ना’
नोएडा, उत्तर प्रदेश