डॉ. निशा अग्रवाल
शिक्षाविद एवं पाठयपुस्तक लेखिका
जयपुर, राजस्थान
बिक रही अब ज्ञान की बातें, मोल लगे संस्कार,
पढ़ना-लिखना धंधा बन गया, है शिक्षा भी व्यापार।
किताबों की जगह अब कोचिंग, नोट्स हुए हथियार,
गुरु नहीं व्यापारी दिखते, मोल भाव का प्यार।
डिग्रियाँ हैं सजती जैसे, शोरूम के द्वार,
संवेदना खोती जाती है, बनते हैं सरदार।
होश नहीं अब होनहार का, जो दे सच्चा सार,
नाम चले बस ब्रांडों का, बाकी सब बेकार।
नैतिकता की बात न पूछो, गायब हैं आदर्श,
रिजल्ट की इस दौड़ में, खो गए शिक्षा के पर्व।
गुरुकुल की उस गरिमा का, अब न कोई विचार,
कहाँ गए वो विद्या मंदिर, और सच्चा संस्कार?
अब समय है सोच बदलने, लौटें उस आधार,
जहाँ शिक्षा हो सेवा जैसी, न हो कोई व्यापार।
ज्ञान बने फिर दीप समान, उजियारा हर बार,
तभी बनेगा भारत प्यारा, शिक्षित, शांत, अपार।