जगत में विकसित होने की होड़ में
चल रहा विकास का सिलसिला था,
सन्नाटा उग आया, बोया तो शोर था
बीज में दम था या बीज कमजोर था
सृष्टि से भी आगे जाने की चाहत में
कम होते रहे दरख़्त घना साया न रहा
प्रकृति के पोर पोर में प्रदूषण फैला है
हवा है अशुद्ध नदियों का पानी मैला रहा
प्रकृति को समर्पित उत्सव पर्यावरण दिवस
जीवन और पर्यावरण का संबंध अटूट रहा
मानव भूल गया जागरूकता का जयघोष
पर सांसों की लेन देन का चक्र चलता रहा
मुट्ठी भर रेत लिए समय, चेतावनी बन खड़ा रहा
प्रकृति की आंखों से भरपूर जल खारा बहता रहा
सूख गईं जो कई नदियां किनारे भी अब रहे नहीं
चेतना की उंगली पकड़ें, प्रकृति हमसे समय मांग रही
-सुजाता प्रसाद
नई दिल्ली