देखो तो बना दी है कैसी ये लाग
बच्चों ने तोड़ दिया राहे-चिराग़
घर से चला लेने, भंडारे का स्वाद
पतलून जल गयी, गिरा जब साग
बाग़ की तो जैसे लंका सी उजड़ी
भवरों ने चूस लिया सारा पराग
वक़्त है जितना, भाग सकता है भाग
आज तो सावनी,लग गयी है आग
तेरे जूते हुए पलंग, नीचे से गायब
सुनले अब तो गहरी निद्रा से जाग
ज़्यादा नहाने से निमोनिया होगा
ना भीग इतना, अभी दूर है फ़ाग
जिसे तूने समझा अबतक साबुन
वो शैम्पू-शक्ल में केवल है झाग
यों शेखी ना कर उस दिलजले की
उसकी सूरत देख जैसे चाँद-दाग
रास्ता है सूना बैठी हो ज्यों नाग
तेरे घर की मुंडेर पे बैठते है काग
‘उड़ता’ तू गौर कर, मत बन घाघ
छोड़ दे अलापना बेसुरा सा राग
-सुरेंद्र सैनी बवानीवाल ‘उड़ता’
713/16, छावनी झज्जर
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