नारी के जीवन की यही है सच्चाई
कोई नहीं देखता उसकी अच्छाई
बस ढूंढते रहते है उसमें कमियां और बुराई
यही है उसके जीवन की त्रासदी
जिसका नहीं हैं कोई साक्षी
जब तड़प रही थी वो, झुलस रही थी वो
दहेज़ के नाम पर की जा रही थी प्रताड़ना उसके साथ
बचाने के लिए उसे तब दिया नहीं किसी ने अपना हाथ
नहीं उठाया किसी ने उसके लिए कोई ठोस कदम
नहीं की अदा किसी ने अपनी भूमिका अहम
बस रहा तो सबके अंदर एक वहम
एक दिन हो जायेगा यह सब ख़तम
पर यह भी करने आगे नहीं हैं कोई आया
यही थी उसकी दयनीय गाथा
जिसने बदल दी पूरी उसकी काया
इस पुरुष प्रधान देश में
किसी ने सुनी नहीं उसकी आवाज़
किसी ने दिया नहीं उसपर ध्यान
जो थी उसकी करुण कहानी
जिसमें था नहीं कोई उसका सानी
बस थी वह अकेली नारी
जो लड़ रही थी स्वयं इस जनता भारी से
लगाए जाते है नारे और
कहते है समाज वाले
नारी तो देवी स्वरूप है
इसके जैसा और कोई न रूप है
नारी पूजनीय है नारी वंदनीय है
इनके कार्य सराहनीय है
फिर क्यों होते है ऐसे घिनौने कार्य इस समाज में
जो फेंकते है दिन दहाड़े उसपर तेज़ाब
जिनके ज़ुल्मो का नहीं करता कोई हिसाब
जिन्हें आती नहीं तनिक भी शरम
जैसे बेच दिया हो इन्होंने अपना मान धरम
और तो और निकलना भी हो जाता है उसका दुश्वार
ठहराते है उसी को कसूरवार
गर निकल भी जाए वह घर से बाहर
करते है टिप्पणी उस पर हजार
क्यों सुरक्षित नहीं है वह सड़कों पर
बैठे रहते है हवस के पुजारी
रास्तों के किनारों पर
क्या नहीं है उसका कोई वजूद
क्यों समझते हो उसे फ़िज़ूल
कहते है देश हो गया आधुनिक
नहीं रह गए यहां पुराने कर्मकांड धार्मिक
देश तो बदला पर सोच नहीं
वो रह गई अभी भी सबमें वैसे ही
नारी हो गई अब आधुनिक
नहीं रही उसपर पाबंदी सामाजिक
बन गई वह आत्मनिर्भर
पर है अभी भी कहीं किसी के हृदय निर्जर
टूट पड़ता है किसी पर भी यह बनकर आसमान जर्जर
देते है समाज में दोनों को दर्जा समान
पर लूट लेते है पीछे उसका सम्मान
होता है उसका शरेआम अपमान
यह कैसा न्याय है उसके साथ
कदम कदम पर मिलती है उसे उलाहना
जिसका करती है वह अकेली सामना
इतना होने पर भी लगाई जाती है
पाबन्दी लड़कियों पर
निकाली जाती है गलतियां लड़कियों की
आखिर कब तक,कब तक चलेगा यह सब
कह देना चाहिए हमें अब बस बस
तोड़ दो ऐसी गुलाम सोच की जंजीरें
लगाओ खुलकर नारे
कर दो यह कहावत सत्य
एक नारी है सब पर भारी
और नहीं है अब वो बेचारी
-प्रीति चतुर्वेदी