देख चाँद- किरण सिंह

देखो चाँद दशा मेरी
कुछ तुम भी दो दीक्षा
कितना लोगे तुम मेरे
धैर्य की परीक्षा

मैं तो ठूंठ पेड़ हूँ
कोई आता नहीं यहाँ
खग नीड़ ले उड़े
जाने कहाँ कहाँ

ना कोयलिया गाती
ना पथिक ही कोई आता
अपनी ही जिंदगानी
अब और नहीं सुहाता

कभी पुरवाई की आहट
कभी किरण की चाहत
आस लगाए बैठे
कभी तो मिलेगी राहत

तुम ही रहे हो साक्षी
मैं था महत्वाकांक्षी
पथिक को देता आया छाया
अब नहीं किसी को माया

फिर मैं दूंगा अर्घ तुम्हें
बस सावन को आने दो
छट जायेंगे दुख के बादल
मन में इक आस जगाने दो

नहीं रहता है समय एक सा
यह तो ध्रुव सत्य है
मैं बदलता हूँ तुम भी बदलो
यही समय का कथ्य है

जीवन में सत्कर्म करो
मत करो फल की इच्छा
नित्य पाठ करो गीता का
फिर करो समीक्षा

-किरण सिंह