मुझे नहीं मालूम- विभा परमार

मुझे नहीं मालूम
अब तक मेरे हिस्से क्या आया
मैंने तो ये देखा है कि
जब से घर से निकली हूँ ना, तब से लेकर आज तक
चलती ही जा रही हूं
अपने सपनों को लेकर
ऐसा नहीं होता कि ये सपने मुझे हर वक्त खुशी देते हैं
कभी कभी दुत्कारते भी हैं
लेकिन फ़िर भी एक धुन है जो मुझे सुनाई देती है
भीमाअंधकार में दिखाई देती है
और तो और कोई अलौकिक शक्ति
जो मुझे महसूस करवाती है
कहीं
रुकने नहीं देती
मेरे कदमों को तीव्र गति से
अपने चुने रास्ते पर बढ़ने को कहती है

और इस बढ़ाव में
इन हसीं वाक्यों में तुम याद आते हो
दिल करता है कभी कभी
कि एक फोन करूं और बता दूं कि इन हसीं वाक्यों का कब ख़ात्मा है
या फ़िर मैसेज ड्रॉप कर अपनी मनोस्थिति को बता दूं
फ़िर लगता है कि
नहीं बिल्कुल नहीं
सपने तुम्हारे तो सपनो को साकार करने की ज़िम्मेदारी भी तुम्हारी!
यही सोचकर मैं कुछ नहीं कहती
ठीक है!
शब्द को अपनी ज़िंदगी में संवाद बना लिया है
या यूं कहो कि
उस ‘ठीक है में’ मैंने तुम्हें देख लिया है
जिसका मैं अब रोज़ अभ्यास करती हूं!

-विभा परमार