ज़िन्दगी के खेल- अनिता कुमारी

खेल-खेल में ज़िन्दगी,
कुछ ऐसे खेल, खेल गई।
अरमानों के बेशकीमती मोती,
कच्चे धागे में पिरो गई।।
चन्द कदमों के राह तले,
मन के, मनके बिखर गए।
धागे की हकिकत वे,
बेजुवां होकर भी बोल गए।।
बटोर हथेलियों में उन्हें,
कुछ गौर फरमाया हमने।
कर रहीं थी गुफ्तगू आपस में,
आशाओं के धागे में पीरो मुझे,
मंज़िल तेरी मिलेगी तुम्हें।।
मायूसी, मुस्कुराहट में बदल,
निष्कर्ष नहीं संघर्ष कर।
नर ‘जाया’, नारी है तू,
क्रंदन नहीं कर्म कर।
लिख अरमानों की नई ग़ज़ल।।
पलकों के ठहरे मोती को,
सीप ने स्वीकार लिया।
जिंदगी से दो-दो हाथ करना,
किस्मत अपनी, बता दिया।।

अनिता कुमारी
बेंगलुरु, कर्नाटका
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