जीवन में अब डर ही डर लगता है
घर के बाहर दूर बहुत घर लगता है

मोबाइल पर ही कुछ पल संवाद चले
अपनों से मिलने पर ज्यों कर लगता है

मुस्कानों से उसके जैसे फूल झड़ें
आचरणों से पूरा निश्चर लगता है

कोहरा, धुंध, गलन से सूरज आहत है
बंद आजकल उसका दफ्तर लगता है

नल खोला, कितना ही पानी बहा दिया
प्यास बुझाने को चुल्लूभर लगता है

ईश्वर भजन समान वृद्धजन की सेवा
धर्म-कर्म ही काशी-पुष्कर लगता है

कोष लुटाता नहीं कभी वह रत्नों का
कहने को तो विस्तृत सागर लगता है

गौरीशंकर वैश्य विनम्र
117 आदिलनगर, विकासनगर
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