प्रकृति, मनुष्य और लॉकडाउन- माज़िद अली

सदियों से हम मनुष्य प्रकृति का दोहन करते चले आ रहे हैं। विश्व स्तर पर हमने प्रकृति को निचोड़ने में कोई कमी नही छोड़ी। आधुनिकता और औद्योगिकीकरण ने इसमें मुख्य रूप से भूमिका निभाई और आज वर्तमान में हम ऐसी स्थिति में पहुँच गए कि हमारा पर्यावरण बुरी तरह प्रदूषित हो गया, शहरों की हवाएं जहरीली हो गयी, धूल गर्दो के अंबार इस तरह लग गए कि आसमान का असली रंग भी धुंधला पड़ गया, ग्लोबल वार्मिंग की तीव्रता से तो हम सब वाकिफ है ही और इन सब का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से दुष्प्रभाव भी दिखने लगा।
हवा, मिट्टी, पानी हमने किसी को नही छोड़ा, पेड़ो की अंधाधुंध कटाई, जहरीली गैसों के उत्सर्जन का प्रभाव पूरे विश्व के पर्यावरण को गंदा किया, ओज़ोन परत भी कमजोर पड़ गयी, जिससे कई नई बीमारियों का खतरा भी बढ़ा, लेकिन हम फिर भी न रुके, न सम्भले, हम हमेशा इन सब को नजरअंदाज कर के आगे बढ़ते रहे।
इस बीच एक ऐसी स्थिति आयी, जिसकी हमने कभी कल्पना भी न की होगा, एक ऐसी बीमारी फैली जिसने पूरे विश्व को अपने चपेट में ले लिया और अचानक विश्व के अनेक बड़े देश एक साथ ठप हो गए और देश की जनता को लॉकडाउन के तहत घरो में बंद होने के लिए मजबूर होना पड़ गया।
अब जब लॉकडाउन में मनुष्य घरो में कैद हुए तो प्रकृति आज़ाद हो गयी, प्रदूषण रुक गया, बड़े शहरों में लोगो ने कई सालों बाद आसमान का नीला रंग और रात में टिमटिमाते तारे देखें, हवाओ की गुणवत्ता में सकारात्मक बदलाव दिखने लगे, परिंदे खुले आसमान में चहचहाने लगें, दूर कई जगहों से हिमालय पर्वत दिखने लगे, नदियो के जल में भी बहुत सुधार देखने को मिला।
इससे एक बात तो स्पष्ट होती है कि पर्यावरण खुद को सुधारने में सक्षम है, उसे हमारी जरूरत नहीं। याद रखें प्रकृति पर हम निर्भर है, प्रकृति हम पर निर्भर नहीं है।
अब अगर हम मनुष्यों की बात की जाए तो दूषित सिर्फ पर्यावरण नहीं हुआ था, इंसान भी दूषित हो चुका था, इंसान अपनी इंसानियत को खो चुका है, तो हमने कहाँ तक सुधार किया, खुद में ये एक बड़ा महत्वपूर्ण पहलू है। एकबारगी तो लगा कि ये स्थिति मनुष्यों को भी सुधार देगी, कम से कम लॉकडाउन के दौरान तो मनुष्यों का इंसान वाला चेहरा दिखेगा, लेकिन इस दौरान भी मनुष्य अपनी हरकतों से बाज नहीं आया। समय समय पर कई अपराध के खबर आती रही। कहीं चोरी, कहीं हत्या, कहीं बलात्कार और कहीं मॉब लिंचिंग, नफरतों का कारोबार जैसे अपराध होते रहे।
इससे तो यही स्पष्ट होता है कि प्रकृति खुद को सुधार सकती है, लेकिन इंसान नही, जबकि प्रकृति के साथ भी हम मनुष्य ही छेड़छाड़ करते हैं और खुद के अपराध के लिए भी हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं।
मेरे इस लेख के साथ कुछ प्रश्न हैं। क्या हम मनुष्य कभी नहीं सुधर सकते, हम दोबारा जब स्थिति सामान्य होने पर लौटेंगे तो क्या तब भी हमारी सोच, जीवनशैली पहले जैसी ही होगी?
यदि हाँ तो एक समय ऐसा भी आएगा, जब मनुष्य अपने अस्तित्व को बचाने के लिए भी शायद नहीं बचेगा।

-माज़िद अली