कैसे कह दूं दोस्त मेरे- रुचि शाही

कैसे कह दूं दोस्त मेरे
कि मैंने प्रेम किया था तुमसे
क्योंकि प्रेम से ज्यादा तो हमने
मजबूरियों की बात की थी
दर्द की, आंसुओं की
जरूरतों की बात की थी,
हमने बांटा था मिलकर
अपने-अपने मन की कुंठाओं को
हृदय में दफ्ऩ पुरानी से पीर से लेकर
उभरते दर्द की नयी तस्वीर को,
हम रोये थे मिलकर
कभी सिसकियों में
कभी फूट-फूटकर आंसुओं में
तो कभी चुपचाप खामोश रहकर
भिगो दते थे एक ही दर्द में
अपने-अपने रुमालों को
हमने सपने संजोने से ज्यादा
पुराने स्वप्न के टूटने की बात की थी
हमने बांटा था
मन के कोने-कोने से लेकर
हृदय के दीवारों पर पड़ी आंसुओं की सीलन को
हमने साथ मिलके मुस्कुराने से ज्यादा
रोने की बात की थी
कैसे कह दूं दोस्त मेरे
कि मैंने प्रेम किया था तुमसे

तुमने लिखा था मेरे मन की डायरी पे
रोजमर्रा की सारी बातों को
बिजली के बिल से लेकर
माँ की दवाईयों की लिस्ट को
पुराने कूलर की गडग़ड़ाहट से लेकर
घर की मरम्मत में आने वाले खर्च को
हमने नफे से ज्यादा
नुकसान की बात की थी
कैसे कह दूं दोस्त मेरे
कि मैंने प्रेम किया था तुमसे

हमने जि़न्दगी के कैनवास पे
ऐसी कोई पेंटिंग बनाई नहीं
जिसमें हम-तुम साथ-साथ खड़े होते
हमने मिलन की मधुर स्वप्न की
कामना की ही नहीं
बस चलते-चलते थाम लिया था
एक-दूसरे का हाथ
कुछ दूर साथ चलकर छोड़ देने के लिए
इक नदी के दो किनारों की तरह से
इसलिये एक होने की ख़्वाहिश हमने की ही नहीं
बस बहते रहे वक़्त के बहाव के साथ
हमारे मन में प्रेम से ज्यादा
शुभकामनायें थी
आँखों में अश्रु रखकर
लबों से निकली दुआओं की बात की थी
कैसे कह दूं दोस्त मेरे
कि मैंने प्रेम किया था तुमसे
बस इसलिये तुम्हें दोस्त कहकर
पुकारा मैंने
क्योंकि इतनी सहजता से
दोस्ती निभाई जाती है प्रेम नहीं…

-रुचि शाही