मुझमें भी तो निहित है- चंद्र विजय प्रसाद

भले ही
तुम्हारा रूप-लावण्य
दैहिक ग्रन्थ हो
किन्तु,यह पूर्णयता नहीं
क्योंकि/ऋचाओं में
निगमागम श्लोक
मुझमें भी तो निहित है…..

सुनो
आनंदोत्सव मनाता
मेरा कालातीत
विद्रूप लगे भले ही
किन्तु,यह अप्रासांगिक नहीं
क्योंकि/वलय दृष्टिगत है
प्रेमानंदित मगन मन में…..

सच है कि
क्रूरता का आवरण
दिख पड़े तुम्हें यदि
तब,ग्रन्थियाँ अविकसित होंगी
क्योंकि/कालजयी सृजन का
स्वरूप हूँ मैं
जो तुझमें ही निहित है….

हे कविता
प्राकृत विरचित काव्य के
शब्दार्थ में
मैं रहूँ या न रहूँ
तथापि,अलंकृत करना मुझे
क्योंकि
अवसान का रीत नहीं
प्रणय काल सूरीत हूँ मैं….

-चंद्र विजय प्रसाद ‘चन्दन’
देवघर, झारखण्ड