वो गीत लिखूँ कैसे- रुचि शाही

वो गीत लिखूँ मैं कैसे
जिसमें न जिक्र तुम्हारा हो।

ये प्रीत तो अंधी होती है
विवेक का कब थामा दामन
मैं होकर भी न तेरी हुई
तुम भी न मेरे हुए साजन
उलझा उलझा रिश्ता अपना
कैसे एक दूजे का सहारा हो।

वो गीत लिखूँ मैं कैसे
जिसमें न जिक्र तुम्हारा हो।

जो दिल टूटा तो पीर मिली
भला कब रांझे को हीर मिली
टूट के बिखरे वो रिस्ते
जिनको न कभी जंजीर मिली
बांधा हैं मन का बंधन
कुछ तो तुमपे हक हमारा हो।

वो गीत लिखूँ मैं कैसे
जिसमें न जिक्र तुम्हारा हो।

तुम्हारी बातें खुशबू जैसी
मानो उपवन में फूल खिले
महक उठती सांसे ऐसे
जैसे चंदन पानी से मिले
जिसने मन को है मोहा
तुम वो जादू का पिटारा हो।

वो गीत लिखूँ मै कैसे
जिसमें न जिक्र तुम्हारा हो।

मैं बरखा की बूंद सी
तुमपे झमझम बरसूं
फिर भी मैं रही प्यासी
ना जाने मैं क्यों तरसूं
कहा करते थे हरपल क्यों
तुम एक बादल आवारा हो।

वो गीत लिखूँ मैं कैसे
जिसमें न जिक्र तुम्हारा हो।

– रुचि शाही