हम अपनेपन से दूर हुए- शीतल वाजपेयी

सुविधाओं के लालच में हम अपनेपन से दूर हुये
मिले बनावट के सब रिश्ते जब बचपन से दूर हुये

बस इक छोटे से कमरे में हम सब मिलकर रहते थे
सर्दी-गर्मी या बारिश हो, सब कुछ सँग-सँग सहते थे
उस अभाव में भी ये जीवन, भावों से था भरा हुआ
आज आदमी दिखता केवल कुंठाओं से घिरा हुआ
जो चरित्र को दिखा सके हम, उस दर्पण से दूर हुये

कम्प्यूटर-मोबाइल में ही कैद हो गये हम सारे
दुनियाभर की चिंताओं में फिरते हैं मारे-मारे
पर किसने अम्मा-बाबू से पूछा उनका हाल कभी
भूले से भी गये नहीं हम बहना की ससुराल कभी
बस उड़ते रहने की धुन में हर बंधन से दूर हुये

बंद खिड़कियों से अब कैसे सूरज की किरणें आयें?
दरवाजे सब बंद पड़े हैं, अँधियारे कैसे जायें?
ऊँची-ऊँची बिल्डिंग में ना छत है ना ही है आँगन
कितनी भीड़ यहाँ लोगों की फिर भी तनहा है जीवन
चंदा-तारे-मेघ-गगन से और पवन से दूर हुये

-शीतल वाजपेयी