वो चल रहा था बस यूं ही अपने हिसाब से
आंखें खुली हैं वक़्त की मेरे ज़वाब से
जितना यह मेरी ज़िंदगी मुझको सिखा गई
उतना अभी सीखा नहीं मैंने किताब से
मजबूरियों ने रात का साथी बना दिया
वरना हमें भी प्यार था इस आफ़ताब से
अब याद में आना तेरा मुश्किल की बात है
किरदार तेरा खो गया आंखों के ख्वाब से
क्यों वक़्त मेरी जीत से नाराज़ हो गया
क्यों जल रही है ज़िंदगी मेरे खिताब से
है याद तेरे इश्क की सौग़ात के लिए
ख़ुशबू चुराई थी कभी सूखे गुलाब से
अपनी नजर की शोखियां प्याले में घोल दे
वरना नशा होता नहीं मुझको शराब से
-पुष्पेन्द्र सिंह ‘उन्मुक्त’
नर्रऊ, विजयगढ़,
अलीगढ़- 202139
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