ईश्वर ने इंसान बनाया, वजूद भूल रहा है,
इंसान अपना रंग रूप स्वरूप बदल रहा है।
छिन्न भिन्न निज अंग को कर रहा कुरूप,
तोड़ रहा दांत कोई तो कोई बनता अनूप।
छेदता जिह्वा कोई तो कोई सिंग रोपता है,
कोई तो कुत्ता बिल्लार बनकर घूमता है।
गोरा रंग पसंद नहीं कोई बन रहा है कारी,
गोरे रंग की चाहत में कोई फिरे मारा-मारी।
पुरुष बन रहा नारी तो नारी पुरूष बन रही है,
दोनों के बीच जो वह तो वैसे ही लचर रही है।
इंसान अब इंसान नही रहा हैवान बन रहा है।
क्रूरता वहशीपन कुकृत्य शैतान बन रहा है।
लीला तेरी कैसी प्रभु अद्भुत चाह पल रहा है,
मानव कर्म छोड़ इंसान रंग रूप बदल रहा है।
-त्रिवेणी कुशवाहा ‘त्रिवेणी’
खड्डा, कुशीनगर