तुम कहते हो कि दुनिया, हो गयी है इतनी छोटी,
क्यों बालक ढूँढ रहा है कचरे में अपनी रोटी?
सबकी मंजिल अमरीका, इंग्लैंण्ड और जापान,
उसको बटोरना ठहरा टूटा-फेंका सामान
अब चंदा पर भी बंगला बनवाने कि सब सोचें
पर वह तो अपने पैरों के नीचे धरती खोजे
फिर भी न कोई शिकवा कि किस्मत पाई खोटी
दुधमुहों को तो दूध नहीं, पर मिल जाता है मांड़
घुटनों चलने से पहले टाँगें होतीं लाचार
खेलों के दिन जब आए तो खेल खा गयी भूख,
पानी भी साफ़ न मिलता, तन रहा है उनका सूख
डाइपर के दिन में भी तो नीचे न जुटी लंगोटी
शीशी-बोतल चुनता है, पन्नी कागज़ दिन-भर,
तन धूल भरा है सारा, कालिख है चेहरे पर
जिस देश का बचपन भूखा हो ना पूछो उसका हाल,
हल करते रह जाते हैं, रोटी का कठिन सवाल
ईमान-धरम खा जाये यह भूख ना होती छोटी
बेमानी है आज़ादी, नाटक जनता का राज,
आहार मिले ना जब तो, झूठा है सारा साज
ऊपर का लेबेल कुछ है, भीतर है कोई माल,
जनसेवक ही राजा है, जनता है खस्ताहाल
जनतंत्र के जाल में उलझी जनता जाती है लूटी
अंजना वर्मा
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