जज़्बात और एहसासात की माला में लफ़्ज़ों को सलीक़े से पिरोने वाली शाइरा: ‘आशा पाण्डेय ओझा’

समीक्षक- बुनियाद ज़हीन ‘बीकानेरी’
महल्ला भिश्तियान, मुशाइरा चौक
बीकानेर (राजस्थान)- 334001

रूह और जिस्म के बेजोड़ संगम को ही इंसानी वजूद कहा जाता है क्योंकि इन दोनों में से अगर किसी एक को भी अलग कर दिया जाए तो ये इंसानी वजूद बिखर जाता है, तहस-नहस हो जाता है ठीक उसी तरह मोहतरमा आशा पाण्डेय ओझा को अपने तराशे हुए लफ़्ज़ों से या इनके एहसास से लबरेज़ लफ़्ज़ों को आशा जी से अलग कर दिया जाए तो शायद दोनों ही अपना वजूद खो बैठें। मैं पिछले 15 सालों से आशा जी को जानता हूँ। मैंने जो जुनून, जो समर्पण साहित्य के प्रति इनके अंदर देखा है, वो मौजूदा दौर की अदबी ख़्वातीनों में बहुत कम नज़र आता है।

सोशल मीडिया मसलन फ़ेसबुक जैसे संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए आशा जी ने बहुत ही मज़बूती से अपने उसूल और अपने ज़मीर की बुनियाद को पकड़ रखा है। आप न केवल हल्की शोहरत से कोसों दूर हैं बल्कि आपने ये साबित किया है कि एक बा-शऊर अदबी औरत का किरदार कैसा होता है। आपने अपने वजूद को ज़िन्दा रखते हुए जो साहित्यिक हल्क़ों में शिनाख्त़ क़ायम की है, वो क़ाबिले-तारीफ़ भी है और क़ाबिले-सताइश भी। आपके कई काव्य संग्रह मंज़रे-आम पर आ चुके हैं और आपने कई किताबों का संपादन भी किया है। आपने मुसलसल साहित्यिक आयोजनों से साहित्यकारों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है।

आपने गीत, ग़ज़ल, दोहे, क़तआत, आज़ाद नज़्म, पाबन्द नज़्म के साथ कई असनाफ़े-सुख़न में तबअ-आज़माई की है लेकिन मैं उस वक़्त आपको हैरत की नज़र से देखता हूँ, जब कोई ग़ज़ल की सख्त़ तरकीब से बचने के रास्ते तलाश करता है वहीं आपने कड़ी मेहनत की बिना पर उन्हीं सख्त़ रास्तों को चुना और यक़ीनन अपनी अदबी सलाहियतों के साथ-साथ मंज़िल की ओर गामज़न हैं। मैं इस संग्रह से कुछ चुने हुए फूल ज़रूर पेश करना चाहूँगा, जिनकी ख़ुशबू कभी हल्की नहीं पड़ेगी बल्कि वक़्त के साथ-साथ और निखरती जाएगी-

दिल है अपना किताब इक ऐसी
हर्फ़ जिसके मिटा नहीं सकते
जिनको तू रिश्ते कहता है
वो तो हैं सब जाले पगले

खो गया बचपन गुबारे खो गये
काँच के कंचे, निशाने खो गये

ज़ख़्म सारे ख़ुद-ब-ख़ुद भरने लगे फिर देखिए
जब मेरे इस दर्दे-दिल में तेरी आहट-सी हुई

मर गया जिनकी आँख का पानी
आईना उनको मत दिखाया कर

चिकनी चुपड़ी कहने वाले आगे बढ़ते देखे हैं
लाग-लपेटे की इस रुत में शेष कहाँ ख़ुद्दारी है

हर-सू आज उजाला लिख दे
अँधियारों पर ताला लिख दे

ग़ज़लों में तू अपनी ‘आशा’
इक अंदाज़ निराला लिख दे

ये अशआर इस ग़ज़ल संग्रह को अदबी आसमान पर रोशन करने के लिए काफ़ी हैं और यक़ीनन इस ग़ज़ल संग्रह की ख़ूब पज़ीराई होगी। अह्ले-ज़ौक़ हज़रात को इसकी ख़ुशबू मन्त्रमुग्ध करेगी। मैं दिल की अमीक़ गहराइयों के साथ आपको मजमूए की इशाअत पर मुबारकबाद पेश करता हूँ।