Book Review- एक कवि इतना तो कर ही सकता है: वंदना मिश्रा

कविता संग्रह- आकाश के पन्ने पर
कवि- अमरजीत कौंके
समीक्षक- वंदना मिश्रा

भाषाई एकता पर भाषण देने वाले नेताओं से नहीं, सब जीवों में एक आत्मा देखने वाले धर्माधिकारियों से नहीं, यदि भाषाई एकता आएगी कभी तो वो साहित्य के माध्यम से ही आएगी, अमरजीत कौंके जी की कविताएं पढ़ कर ये धारणा बलवती होती है।

साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार प्राप्त कर चुके कौंके जी निरन्तर दूसरी भाषाओं से गुरुमुखी में अनुवाद करके भी इस दिशा में सराहनीय कार्य करते रहते हैं। उनका हिंदी कविता संग्रह ‘आकाश के पन्ने पर ‘की कविताओं को इस तरफ बढ़ा एक सशक्त क़दम माना जा सकता है।

अमरजीत जी दैनिक जीवन के कवि हैं, रसूल हमजातोव ने लिखा “मत कहो कि मुझे विषय दो कहो कि मुझे दृष्टि दो!” अमरजीत जी भी ऐसे ही कवि हैं, उन्हें कविता किसी बड़े महान व्यक्ति की शक्ति नहीं लगती बल्कि सामान्य लोगों की बातचीत सी कविता है उनके यहाँ और उसी की चाहत भी।

उनके लिए कविता वायवीय वस्तु नहीं है वह जन जीवन से जुड़ी हुई है। इसीलिए वे मानते हैं कि कविता का पहला शब्द साधारण आदमी लिखता है और कविता आम आदमी के मन में उपस्थिति है। इसीलिए जब उनसे जुड़ी कविताएं सुनाई जाती है तो बड़े ध्यान से सुनते हैं और जुड़ जाते हैं। कल्पना लोक और ज्यादा जटिलताएं लिए कविताएं बौद्धिक बन कर रह जाती हैं।

जनता सुनती है जब उसे लगता है कि यह तो उसकी बात की जा रही है लोग सोचते हैं कि कविता वह जो ‘दूर की कौड़ी’ लाए पर श्रेष्ठ कवि वह जिसकी कविता लोगों के दिल में उतर जाए। वे लिखते हैं “मेरे सीधे साधे शब्द सुनकर/हैरान हुई वह बूढ़ी औरत/हाथों में मचलती कलाइयां रोककर/वह सुनने लगी मेरी कविताएं। (पृष्ठ 28)

सरलता का सौंदर्य है अमरजीत कौंके की कविताओं में उनकी कविताएं जैसे एक दूसरे से जुड़ी और सच्ची कविता की रचना प्रक्रिया को बताती चलती है। वे स्वतंत्रचेता  व्यक्ति की तरह शब्दों को भी स्वतंत्र छोड़ देते हैं। जबरन रचने वाले कवि नहीं है कविताएं आती हैं वे उन्हें समय देते हैं, पकने देते हैं। जबरदस्ती और जल्दी बाजी नहीं करते, चुपचाप उनका आना बनना देखते हैं, इंतजार करना जानते हैं।

रीतिकालीन कवि घनानंद की तरह उनकी कविताएं उन्हें बनाती है लिखते हैं- “नहीं/जबरन बांधकर नहीं रखता मैं शब्द।”

तभी उन्हें भरोसा है कि “शब्द आखिर लौटकर आएंगे/मेरे पास एक दिन।” जो लोग कविता पर जबरदस्ती का पांडित्य लादने के हिमायती हैं। उन्हें अपनी धारणा बदलने के लिए जरूर पढ़नी चाहिए ये कविताएं, कैसे बातचीत करती है कविताएं, किसी ने लिखा कि “नाम नहीं लिखूँगा पर लिखूँगा तुम्हें ही।”

अमरजीत जी लिखते हैं “मैं कविता नहीं/जैसे तुम्हें ही लिखता हूं/… कविता के रूप में तुम/हमेशा मेरे पास होती हो।”

उनकी एक बहुत प्रसिद्ध और सुंदर कविता है “कुछ शब्द जिनके लिए लिखे थे/सिर्फ उसी ने नहीं पढ़े।”

इसकी एक खिड़की प्रेम के तरफ खुलती है, दूसरी समाज की तरफ, किसी भी व्यक्ति के लिए पढ़ी जा सकती है ऑफिस में बॉस हो, घर में कोई बड़ा व्यक्ति हो, जो किए हुए कार्य को, उसके लिए सहे गए दर्द को अनदेखा कर रहा है। जिसके लिए आप सारा प्रयास कर रहे हैं, वही उसे ना देख पाए! इस संदर्भ में यह कविता बहुत बड़ी कविता बन जाती है।

बच्चे उन्हें प्रिय हैं और विश्वास यह भी कि दुनिया में कोई भी विचारधारा नापसंद की जा सकती है और सबके अपने अलग सत्य हो सकते हैं लेकिन यही सत्य ऐसा है, जिससे कोई भी मुंह नहीं मोड़ सकता वह है बच्चों की कोमलता, मासूमियत। इसलिए उन्हें विश्वास है कि दीवारों पर से अगला आने वाला कोई सारे पोस्टर हटा देगा, लेकिन बच्चों की मुस्कान वाला पोस्टर, वह कभी नहीं उतार पाएगा लिखते हैं- “लेकिन कभी नहीं उतार पाएगा वह/मुस्कुराते बच्चे का पोस्टर।”

दुनिया पर इतना विश्वास और उसे खूबसूरत बनाने की जो जद्दोजहद है वह उनकी कविताओं को और भी सुंदर बना देती हैं।

बशीर बद्र  का शेर है “इतनी मिलती है मेरी ग़ज़ल से तेरी सूरत/लोग तुझको मेरा महबूब समझते होंगे।”

अमरजीत जी लिखते हैं “मेरी आंखों से लोग/तुम्हारी तस्वीर पहचान लेते हैं/मेरे शब्दों में तुम्हारे/नाम की कविताएं ढूंढते हैं।”

पुरुष और स्त्री के प्रेम में अंतर है उसे भी बड़े सहज तरीके से देखते हैं और उसे बहुत सरल शब्दों में संप्रेषित करते हैं। स्त्री जिम्मेदारियां निभाने को ही प्रेम समझती है। असल में उसने जिम्मेदारी और प्रेम में कभी फर्क करना सीखा ही नहीं है। पुरुष सब कुछ छोड़कर प्रेम करता है और स्त्री के लिए प्रेम करना सब कुछ सहेजना होता है। अमरजीत लिखते हैं- “मेरी बेचैनी तुम्हारी सहजता से/कितनी भिन्न है।” यहां स्त्री पुरुष ही नहीं व्यक्तित्व की भिन्नता भी दिखाई पड़ती है।

कवि जानता है कि प्रेम में अलगाव होगा। कभी ना कभी दूरी भी होगी लेकिन प्रेम भरे मन का लौटना, अकेला लौटना, खाली लौटना नहीं होता प्रिय का थोड़ा सा हिस्सा साथ-साथ लौटता है। बहुत कुछ लेकर आता है जब वह लौटते हैं तो अकेले नहीं आते “फूलों से लगा लहलहाता एक अमलतास  होता हूँ।”

कहते हैं अतिशय प्रेम पापशंकी होता है। प्रेम में प्रिय पात्र को खो देने, उसकी नजर से गिर जाने का भय भी समाहित होता है। कवि आश्वस्त होना चाहता है कि जब सब कुछ खत्म हो जाए नाम यश संपत्ति यहाँ तक कि जिन पर सबसे अधिक भरोसा है वे शब्द भी तब भी क्या उसका प्रिय उसका साथ देगा? यह कामना ही इस कविता को निराशा के गर्त से निकालकर उम्मीद की तरह जगमगाती है। उत्तर कवि को भी मालूम है पर बार-बार प्रिय के ही मुँह से सुनना उसे अच्छा लगता है, लुभाता है ,आश्वस्त करता है।

“क्या तब भी/ तब भी/इसी तरह चाहोगी तुम मुझे।”

बड़ी क्रांति की बात नहीं कहती कविताएं पर इस दुनिया में प्रेम से बड़ी क्रांति क्या होगी! क्या नहीं लगता कि यदि हम दिलों में प्रेम भर दें तो युद्ध बंद ही हो जाएंगे।

साथ रहने की कामना, बीहड़ों से भी प्रेम की रोशनी के सहारे पार कर लेने का विश्वास है कवि को। समय बाजार का हो गया है और कवि जानता है कि इस भयावह समय में कौन पढ़ेगा कविता। लिखते हैं- “ऐसे दौर में/हे कवि! तुम्हारी कविताएं कौन पढ़ेगा।”

संभवतः पाश ने लिखा “क्या बुरे वक्त में भी लिखी जाएंगी कविताएं/हाँ बुरे वक्त में बुरे वक्त के लिए लिखे जाएंगी कविताएं।”

कवि को प्रेम के बाद यदि किसी वस्तु पर भरोसा है तो शब्द पर लिखते हैं “कुछ भी नहीं होगा तब भी/हमारे पास रहेंगे शब्द/अपनी अनंत संभावनाओं के साथ।”

आवाज शब्द और प्रेम इसी से बसा है कवि का संसार। घर, परिवार, मां, कवि की ताकत है। फुजैल ज़ाफरी के शब्दों में कहें तो- “बोसे बीवी के, हँसी बच्चों की, माँ की आँखें/कैद खाने में गिरफ्तार समझिए हमको।”

कवि केवल कोमल नहीं है। उसे साज़िशों का भी पता है और  लोगों की साज़िशों को अपने तरीके से जवाब देना भी जानता है। लिखते हैं “और मुझे सांपों के सिर कुचलने की/और जहर को ऊर्जा में बदलने की कला आती है।”

उत्तर आधुनिक आलोचक’ कविता एक करारा व्यंग्य है, उन लोगों पर जो सच को सच की तरह नहीं। चटपटे और भदेस रूप में सुनकर ही तृप्त होते हैं।

“प्यार को प्यार कहा तो उन्हें बुरा लगा।”

जिम्मेदारियां व्यक्ति को व्यवहारिक बना देती है और उसकी कविता से दूर इस बात का दुख है, पर सारी दुनिया से नाता तोड़ आसमानी बात नहीं है कविता। ‘बस में कवि’ कविता इस दृष्टि से बेहद खूबसूरत बन पड़ी है कोमलता में ही शक्ति है पत्थर को फूल बना देने की इसीलिए “तितली के बैठते ही पत्थर खिलकर फूल बन जाता है।”

अहिल्या कैसे पत्थर से स्त्री बन जाती है इस मिथक को भी इस नजरिए से देखा जा सकता है। कवि बस में गाने वाली लड़की को ज्यादा पैसे देता है “ताकि बना रहे उसे/अपने गीतों पर यकीन।”

बड़े संदर्भ में देखें तो यह चुपके से अनाथ लड़कियों को निर्धारित देह धंधे से दूर हटाने की प्यारी सी कोशिश भी है। जो कवि बड़ी शालीनता से कर रहा है। अमृता प्रीतम ने लिखा “जिसे मरुस्थल में पानी नहीं दिखा, निश्चित रूप से उसकी प्यास में कुछ कमी थी।”

अमरजीत लिखते हैं “मेरी प्यास का जुनून था/कि मैं रेत और पानी में फर्क ना कर पाया।”

संग्रह में मां के लिए लिखी 7 कविताएं बेहद मर्मस्पर्शी और व्याख्या से परे हैं। ऐसी कि पढ़ते ही आप अपनी मां की स्मृति में खो जाए। उनके यहां गांव और घर की तड़प है चंद सिक्कों में जो बिक रहा है वह जमीन का टुकड़ा नहीं उनका घर है। उनके पूर्वजों की आत्मा है। कवि दुखी है और उस दृश्य को अपने मन मस्तिष्क में उतार लेना चाहता है। लोग व्यंग्य में कहते हैं कि हर दुख पर कविता लिखना कवि का शगल होता है और यह भी पूछते हैं ऐसे कविताएं लिखकर कवि क्या परिवर्तन कर सकता है?

अमरजीत जी भी इस सत्य को जानते हैं इसलिए वह जवाब देते हैं कि “एक कवि सिर्फ़ इतना ही कर सकता है/एक कवि इतना तो कर ही सकता है।”

फर्क है नजरिए का हम सब जानते हैं कि कुछ ना करने से कुछ करना हमेशा बेहतर होता है। बहुत ही खूबसूरत और कोमल कविताएं हैं। कविताओं में अनावश्यक रहस्यमयता, अनावश्यक शब्दाडम्बर और बहुत बड़ी-बड़ी बातें न कह कर। बहुत शालीनता और कोमलता से अपनी बातें बल्कि हम सब की बात कहने का प्रयास किया है कवि ने। संग्रह पहले ही काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है और उम्मीद है कि पाठकों द्वारा बेहद पसंद किया जाएगा।

शुभकानाएँ