कुछ भी हो गऊंवा तो महानगरों से प्यारा है,
नाम के संग पुकार नही आपसी भाईचारा है
पड़ोसी हो या पराया सब रिश्ते में ही लगते हैं,
काका-काका, भैया-भौजी, दादा बहना कहते हैं
एक आवाज़ की पुकार सुनकर सब जुट जाते हैं,
अपनी-अपनी सामर्थ्यानुसार मिल हाथ बढ़ाते हैं
महल हो या झोपड़ी जब भी छत चढ़ाना होता है,
बिना मोल मजदूरी करते शाम को भंडारा होता है
दुःख-दर्द की आगजनी हो या शुभ-मुहूर्त का छांव,
सब मिल दुःख-सुख में शरीक होते है हँसते मनभाव
भाईचारे रखते किसी को खाने बिन मरने नही देते हैं,
जीवन अंतिम यात्रा में पंचलकड़ी संग दान भी देते हैं
भाईचारे का मिसाल समझना हो तो सुने-पढ़े रामायण,
एक पर एक भारी होते सबके सब होते आत्मपरायण
तभी तो सहस्त्र हजारों वर्ष बीते सब के सब हैं महान,
भाईचारे-भातृत्व प्रेम कर्म से इंसान बनता है भगवान
-त्रिवेणी कुशवाहा ‘त्रिवेणी’