हायकु: वंदना सहाय

वंदना सहाय

दिल का बोझ
होता बहुत भारी
सहा न जाए

बंजर दिल
रिश्तों की पैदावार
कैसे हो यहाँ

नयी फसल
जहरीली हो गई
ज्यादा खाद से

कैसा दौर
झूठ की मंडी बिके
हरिश्चंद्र भी

‘आतंक शास्त्र’
शायद आगे बने
नया विषय

सबसे ऊँचा
बाजार में था भाव-
बेईमानी का

भूल चलो हैं
अपनी धरोहर
अपना घर

बुढ़ापा चाहे
तुम्हारी स्नेह-भरी
एक छुअन

सिमट कर
रह गया आसमाँ
खिड़की-भर

शीशे के ख़्वाब
लहुलुहान करें
हमारी आँखें

कहाँ दूँ अंडे
चिड़िया ये नन्ही-सी
है सोच रही

मरते लोग
कहीं खाए बगैर
कहीं ज्यादा खा

बस्ते को भूले
गरीब बचपन
कूड़े में खेले

नाखूनों-जैसे
कभी कटते रिश्ते
बिन दर्द के

कैसे निहारे
भूख-प्यास के मारे
चाँद- सितारे

तोड़ घरों को
हमने हैं बनाए
कई मकान

बरसे पैसा
और खेत सुख का
पड़ा है सूखा

खत्म हो गए
कलरवों से भरे
पेड़ के साए

बटुआ तंग
आम लोगों की जंग
मँहगाई से

वह गरीब
हाथों के चिमटे से
सेंके रोटियाँ