कोरे काग़ज़ पे- सूरज राय सूरज

भाई ये मेरे ख़ाते-बही किसलिये
कोरे काग़ज़ पे मेरे सही किसलिये

सारे किरदार थे पूरे-पूरे मगर
ये कहानी अधूरी रही किसलिये

पंख काटे मेरे बाज़ दर पे खड़ा
फिर भी पंजों में ये हथकड़ी किसलिये

शायरी गांव की ठण्डी भोली हवा
शहरी कूलर सी जादूगरी किसलिये

वो अकेला-अकेला था संसार में
लाश की आँख फिर भी खुली किसलिये

ग़ौर से सबको खुशियों ने देखा मगर
सिर्फ़ मुझपे नज़र सरसरी किसलिये

खाद-पानी अगर कोई देता नहीं
शाख़ नफ़रत की फिर भी हरी किसलिये

ज़िंदगी शब है तो फिर चिरागां जला
यार सूरज की चमचागिरी किसलिये

-सूरज राय सूरज