फूल सरसों के झरे क्यों- रकमिश सुल्तानपुरी

बादलों ने
नभ, निलय में इन्द्रधनुषी
रँग भरे क्यों?
सह थपेड़े
मौसमों के, फूल सरसों
के झरे क्यों?

आह में
तप सतपथों पर तीव्रगति से
तू चला चल
दुखभरी
इक रात भी तो मनुज का
तोड़ती सम्बल

कौन जाने
हो कि न हो कल सबेरा
इस निशा का
जिंदगी
है स्वप्न प्यारी पर अधूरी
फिर डरे क्यों?

हार कैसी
जीतना जब है पड़ा सच
झूठ अंधा
कर्म की
बैसाखियों को दृढ़ता दे,
लाँघ बंधा

दुर्गुणों की
सुखमयी ये धूप अच्छी
तो नही है
सर्द पशुवत
आदतों से छोड़ निजता
हम ठरे क्यों?

-रकमिश सुल्तानपुरी