याद है ना तुम्हें- दीप्ति शुक्ला

कान्हा याद है ना तुम्हें
थाम कलाई
कल रात को
चले थे संग मेरे
कल्पनाओ के सागर
को नापने

कान्हा कितने प्यारे हो तुम
मानते राधा की हर बात को

ये कल क्या हुआ था मुझे
जब पानी की गहराईया
बनाती चली जा रही थी
तन मेरा जलपरी सा

तेरे हाथों की गर्माहट बढ़ा रही थी
ओज मेरे मन का

ये परिवर्तन तन का
ये परिवर्तन मन का

संभव कहाँ था भला
संभलना तेरे बिना

कान्हा बन मेरे संग
मतस्य सा
देख रहे दृश्य हो
अचभ्य सा

पुलकित मन
पुलकित तन

माधो देख
ह्रदय यहाँ तृप्त है
पीड़ा हुई सब सुप्त है

माधो देख
सागर में खेलता
अटखेलापन
अबोध, निरंकुश
मचलता मछली का जीवन

माधो देख
बड़ा मधुर यहाँ जीवन है
जहाँ नीर में चमकते नीड़ है
जहाँ सब रंग चमकते जीव है
जहाँ जीवन इक पल भी नहीं ठिठकता

देख रंग शैवाल के
स्वपोषी यहाँ संसार है
प्रेम की नमी पा सरल ये सजीव है

माधो देख रहे
या दिखा रहे?
लीला क्या तुम रचा रहे?

-दीप्ति शुक्ला