जाना-जाना- सुरेंद्र सैनी

एक पल में बदल गया है मंजर जाना
क्यों दिल में चुभ रहा है खंजर जाना

कुछ नहीं करीब मेरे, तुझे खोकर जाना
कदम-कदम पर मिल रही है ठोकर जाना

कहीं अंतर्मन में जैसे युद्ध बकसर जाना
किसी प्रलय का ख्याल आए अकसर जाना

दंश झेलते-सहते पीड़ा देते नश्तर जाना
शूल बिछाए काँटे बन रहे बिस्तर जाना

पड़ रहा है हर एक जख्म सीं कर जाना
पड़ रहा है ज़हर का घूंट पीकर जाना

कहीं होना जाए नाउम्मीदी का पहरा जाना
चढ़ती नींद, धो रहा हूँ बार-बार चेहरा जाना

हादसों की शक्ल में कुछ घट रहा अंदर जाना
मेरे अश्कों ही से भर गया है समंदर जाना

मौत की आरज़ू उड़ता गिने है नंबर जाना
ज़मीन पर हूँ, मिलेगा कब मुझे अंबर जाना

-सुरेंद्र सैनी बवानीवाल ‘उड़ता’
झज्जर, हरियाणा
संपर्क- 9466865227