आइनों के राजमहल में: मुकेश चौरसिया

कितना कुछ करने को था, कितना सा कर पाये हम
कुछ उधार की साँसे पाकर, जीवन भर इतराए हम

आइनों के राजमहल में, कल तक अपना डेरा था,
आज मिले जो तुमसे, खुद को पहचान न पाए हम

जीवन के बही खाते में, लाभ हानि का खेल लिखा,
हासिल तो कुछ भी ना आया, कितना जोड़ घटाए हम

जीवन की मुट्ठी में भरकर, उमर रेत की लेकर भागे,
आज यहाँ बैठे गिनते हैं, कितना बचा के लाए हम

जब तक हरे भरे थे, तब तक शाखों के मेहमान रहे,
सूखे पीले पत्ते बनकर अपने घर से हुए पराए हम

आँख खुली तो देखा हमने, सब कुछ पीछे छूट गया,
जिन सपनों के पीछे भागे, उनसे ठोकर खाए हम

मुकेश चौरसिया
गणेश कॉलोनी, केवलारी,
सिवनी, मध्य प्रदेश