विडंबना ये कैसी- सीमा कृष्णा

देखो ये विडंबना कैसी आन पड़ी,
मुझसे ही जन्मा, आज मुझे ही अछूत कहता है
मेरी ही कोख के जाए को
आज मेरी ही परछाईं से ऐतराज़ है
जिसने रचा तुम्हें, उसी ने रचा मुझे,
और देखो आज वो मुझसे ही दूरी बनाये है
कैसा जनक है वो,
जो अपने ही जायों में ही भेद दो रखता है
क्या मेरी भक्ति, भक्ति नहीं?
या मेरी भावना झूठी है?

क्या उसने मुझसे मेरी इच्छा पूछी थी,
कि मैं उपजाऊ होना चाहती भी हूँ या नहीं?
क्या इसकी मंजूरी, मुझसे ली थी उसने?
नहीं, नहीं ली थी उसने मुझसे मेरी मंजूरी

तो फिर तुम कौन होते हो,
मुझे मेरी भक्ति की मंजूरी देने वाले?
मुझे ये कहने वाले कि
मेरा जनक मेरे स्पर्श से अपवित्र हो जाएगा,
तुम होते कौन हो?
जब उसने मुझे ऐसा ही बनाया,
तो उसे मुझसे बैर कैसा और क्यों?

नहीं मानती मैं तुम्हारे ऐसे नियमों को
जो मुझे मेरे जनक से ही दूर कर दे,
नहीं मानती मैं तुम्हारे ऐसे नियमों को
जो मेरी भक्ति, मेरे प्रेम और मेरी निष्पाप श्रद्धा पर
डर का आवरण चढ़ा दे

-सीमा कृष्णा