वंदना पराशर
शुक्ल पक्ष में
अक्सर ही लड़कियां
किताब खोलकर
लेट जाती है
माटी के बिछौने पर
खुले आंगन में
खुले मन से
वह मांग लेती है
चांद से उसकी चांदनी
तारों से उसकी झिलमिलाहट
हवा से थोड़ी सरसराहट
ऊंघते हुए चिड़ियों से थोड़ी चहचहाहट
शुक्ल पक्ष में
अक्सर ही लड़कियां
खो जाती है चांद की चांदनी में