बादलों की
ओढ़ चादर
सो गए नभ के सितारे
अनवरत बूंदों
की रिमझिम
वृक्ष-सम्पुट-शोर को सुन
घोसलों से
चोंच भरकर
अम्बु छकते हैं चिरंगुन
घन लिए
घनघोर बारिस
आर्द्र करते हैं धरा को ,
हो रही जलमग्न
नदियां
शोर करते हैं किनारे
गर्जना की
दुंदुभी जब
मेघ न खुलकर बजाया
छिप गया
आकाश में था
सूर्य अब तक तमतमाया
हाँकता ही
जा रहा रथ
आँधियों का वो गगन तक,
स्वागतम
करते उमड़कर
नृत्य करते वृक्ष सारे
आज सन्ध्या
फिर खड़ी है
भोर में व्यवधान करती
जो लिपट
वर्षा से दिन में
रात्रि का अवधान करती
सुप्त सरवर,
बाग, कानन
खिलखिलाकर हँस रहे है,
घुँघटों की
ओट से
इंद्रधनु बदली निहारे
-रकमिश सुल्तानपुरी