दर्पण के उजाले में
मेरा अक़्स नजर आया,
जीवन की वास्तविकता से
दर्शन है कराया
दूसरों की कमी सदा देखते तुम
कभी अपनी भी तुम देख लो,
पत्थर फेंकना आसान है
कभी पूज कर भी देख लो
पत्थर एक पनघट पर
वही एक आलय में,
पत्थर एक राही के पथ पर
वही एक शिवालय में
पीटा और एक सजाया जाता
रौंदा और पूजा जाता एक,
समय और जगह की महत्ता है
वस्तु एक ही भाव व मूल्य अनेक
देखो मुझे! हजारों तापमान पर
पिघलाया जाता है,
अपनी चाहत और रंग-रूप के अनुसार
आकार में लाया जाता है
जैसा रूप और आकार मिलता है
वैसा ही कार्य करता हूँ मैं,
दर्पण हूँ
कभी रूप निखार सुन्दरता का वर्णन
तो कभी वास्तविकता का वर्णन करता हूँ मैं
-त्रिवेणी कुशवाहा ‘त्रिवेणी’